गुरुवार, 28 मई 2009

चतु:श्लोकी भागवत..

ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किए जाने पर प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था। वही मूल चतु:श्लोकी भागवत है।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।
पश्चादहं यदेतच्च योSवशिष्येत सोSस्म्यहम ॥१॥
ऋतेSर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो माया यथाSSभासो यथा तम: ॥ २॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥ ३॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाSSत्मन:।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥ ४॥
सृष्टी से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टी न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टीरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टी, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं ही हूँ। (१)
जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है। (२)
जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ। (३)
आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टी) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्त्व है। (४)
इस चतु:श्लोकी भागवत के पठन एवं श्रवण से मनुष्य के अज्ञान जनित मोह और मदरूप अंधकार का नाश हो वास्तविक ज्ञानरुपी सूर्य का उदय होता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

ज्येष्ठ मास की निर्जला एकादशी..

युधिष्ठर ने कहा : जनार्दन ! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्वज्ञ और वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं।

तब वेदव्यासजी कहने लगे : दोनों ही पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन न करे। द्वादशी के दिन स्नान आदि से पवित्र हो फूलों से भगवान केशव की पूजा करे। फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात पहले ब्राहमणों को भोजन देकर अंत में स्वयं भोजन करें। राजन ! जननाशौच और मरणाशौच में भी एकादशी का भोजन नहीं करना चाहिए।
यह सुनकर भीमसेन बोले : परम बुद्धिमान पितामह ! मेरी उत्तम बात सुनिए। राजा युधिष्ठर, माता कुंती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझेसे भी हमेशा यही कहते हैं कि : 'भीमसेन ! तुम भी एकादशी को न खाया करो....' किंतु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ की मुझसे भूख नहीं सही जायेगी।
भीमसेन कि बात सुनकर व्यास जी ने कहा : यदि तुम्हे स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और नरक को दूषित समझते हो तो दोनों पक्षों कि एकादशियों के दिन भोजन न करना।
भीमसेन बोले : महाबुद्धिमान पितामह ! मैं आपके सामने सच्ची बात कहता हूँ। एक बार भोजन करके भी मुझसे व्रत नहीं किया जा सकता, फिर उपवास करके तो मैं रह ही कैसे सकता हूँ? मेरे उदर में वृक नमक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खता हूँ, तभी यह शांत होती है। इसलिए महामुने ! मैं वर्षः भर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ। जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइए। मैं उसका यथोचित रूप से पालन करूँगा।
व्यास जी ने कहा : भीम ! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करने केलिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़ कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है। एकादशी को सूर्योदय से लेकर दुसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो व्रत पूर्ण होता है। तदन्तर द्वादशी को प्रभात कल में स्नान करके ब्राहमणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे। इस प्रकार सब कार्य पुरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राहमणों के साथ भोजन करे। वर्षभर में जितनी एकादशियाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि : 'यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है।' एकादशी व्रत करनेवाले के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दंड-पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते। अन्तकाल में पिताम्बरधारी, सौम्य स्वभाववाले, हाथ में सुदर्शन धारण करनेवाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आखिर इस वैष्नव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं। अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्रीहरि का पूजन करो। स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी के प्रभाव से भस्म हो जाता है। जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है। उसे एक-एक प्रहर में कोटि-कोटि स्वर्णमुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है। मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है। यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है। निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णवपद को प्राप्त करता है। जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है। इस लोक में वह चांडाल के सामान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है।
जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं।
कुन्तीनन्दन ! 'निर्जला एकादशी' के दिन श्रद्धालु स्त्री-पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य विहित हैं, उन्हें सुनो : उस दिन जल में शयन करनेवाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घ्रृत्मयी धेनु का दान उचित है। प्रयाप्त दक्षिणा और भांति-भांति के मिष्ठानों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राहमणों को सन्तुष्ट करना चाहिए। ऐसा करने से ब्राह्मण अवश्य संतुष्त होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं। जिन्होंने शम, दम और दान में प्रवृत हो श्रीहरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस 'निर्जला एकादशी' का व्रत है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढियों को और आनेवाली सौ पीढियों को भगवान वासुदेव के परमधाम में पहुँचा दिया है। निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शय्या, सुंदर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिए। जो श्रेष्ठ तथा सुपात्र ब्राहमण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठत होता है। जो इस एकादशी की महिमा को भक्तिपूर्वक सुनता अथवा उसका वर्णन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है। चतुर्दशीयुक्त अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल इसके श्रवण से भी प्राप्त होता है। पहले दंतधावन करके यह नियम लेना चाहिए कि :'मैं भगवान केशव की प्रसन्नता केलिए एकादशी को निराहार रहकर आचमन के सिवा दूसरे जल का भी त्याग करूँगा।' द्वादशी को देवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। गंध, धुप, पुष्प और सुंदर वस्त्र से विधिपूर्वक पूजन करके जल के घडे के दान का संकल्प करते हुए निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करे :
देवदेव हृषिकेश संसारार्णवतारक।
उदकुम्भप्रदानेन नय मां परमां गतिम्॥
'संसारसागर से तारनेवाले हे देवदेव हृषिकेश ! इस जल के घडे का दान करने से आप मुझे परम गति की प्राप्ति कराइये।' (पद्म पु.हंस.खंड : ५३.६०)

भीमसेन ! ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिए। उस दिन श्रेष्ठ ब्राहमणों को शक्कर के साथ जल के घडे दान करने चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य भगवान विष्णु के समीप पहुंचकर आनन्द का अनुभव करता है। तत्पश्चात द्वादशी को ब्राह्मण-भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करे। जो इस प्रकार पूर्ण रूप से पापनाशिनी एकादशी का व्रत करता है। वह सब पापों से मुक्त हो अनामय पद को प्राप्त होता है।
यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का व्रत आरम्भ कर दिया। तबसे यह लोक में 'पांडव द्वादशी' के नाम से विख्यात हुई।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

मंगलवार, 19 मई 2009

प्रभु! परम प्रकाश की ओर ले चल..

इस संसार में सज्जनों, सत्पुरुषों और संतों को जितना सहन करना पड़ता है उतना दुष्टों को नहीं। ऐसा मालूम होता है कि इस संसार ने सत्य और सत्त्व को संघर्ष में लाने का मानो ठेका ले रखा है। यदि ऐसा न होता तो गाँधी को गोलियाँ नहीं खानी पड़ती, ईसामसीह को सूली पर न लटकना पड़ता, दयानन्द को जहर न दिया जाता और लिंकन व कैनेडी की हत्या न होती।इस संसार का कोई विचित्र रवैया है, रिवाज प्रतीत होता है कि इसका अज्ञान-अँधकार मिटाने के लिए जो अपने आपको जलाकर प्रकाश देता है, संसार की आँधियाँ उस प्रकाश को बुझाने के लिए दौड़ पड़ती हैं। टीका, टिप्पणी, निन्दा, ग़लत चर्चाएँ और अन्यायी व्यवहार की आँधी चारों ओर से उस पर टूट पड़ती है।सत्पुरुषों की स्वस्थता ऐसी विलक्षण होती है कि इन सभी बवंडरों (चक्रवातों) का प्रभाव उन पर नहीं पड़ता। जिस प्रकार सच्चे सोने को किसी भी आग की भट्ठी का डर नहीं होता उसी प्रकार संतजन भी संसार के ऐसे कुव्यवहारों से नहीं डरते। लेकिन उन संतों के प्रशंसकों, स्वजनों, मित्रों, भक्तों और सेवकों को इन अधम व्यवहारों से बहुत दुःख होता है।महापुरुष के मन में कदाचित् कोई प्रतिकार पैदा हो तो यही किः “हे दुनिया! तेरी भलाई के लिए हम यहाँ आए थे, किन्तु तू हमें पहचान न सकी। यहाँ आने का हमारा कोई दूसरा प्रयोजन नहीं था। हमने तो तेरे कल्याण के लिए ही देह धारण की और तूने हमारी ही अवहेलना की, अनादर किया? हमें तुझसे कुछ लेना नहीं था। हम तो तुझे प्रेम से अमृत देने के लिए बैठे थे। तूने उसका अनादर किया और हमारे सामने विष वमन करना शुरु किया। खैर तेरा रास्ता तुझे मुबारक और हम अपने आप में मस्त।अन्धकार, जिसका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं होता, अकारण ही प्रकाश की निन्दा करता है। मनुष्य की प्रकृति में यह अन्धकार अज्ञान और जड़ता के रूप में स्थित है। यह जब अपना जौहर दिखाता है तब हैरानी परेशानी पैदा कर देता है उसे नष्ट करना और परम दिव्यता के प्रकाश की आराधना करना इसी का नाम ही साधना है। सभी संत विभिन्न रूप में हमें इस साधना के मार्ग की ओर ले जाते हैं। घाटी का उबड़खाबड़ रास्ता छोड़कर हम परम दिव्यता के प्रकाशित पथ पर अग्रसर बनें ऐसी प्रार्थना के साथ…॥गहन अन्धकार से प्रभु!परम प्रकाश की ओर ले चल…..एक बार तथागत बुद्ध भगवान के पास आकर उनके शिष्य सुभद्र ने निवेदन कियाः “प्रभु! अब हमें यात्रा में न भेजें। अब मैं स्थानिक संघ में रहकर ही भिक्षुओं की सेवा करना चाहता हूँ।”बुद्धः “क्यों? क्या तुम्हें यात्रा में कोई कटु अनुभव हुआ?”सुभद्रः “हाँ, यात्रा में मैंने लोगों को तथागत की तथा धर्मगत की खूब निन्दा करते हुए सुना। वे ऐसी टीकाएँ करते हैं कि उसे सुना नहीं जा सकता।”बुद्धः “क्या इसीलिए तुमने यात्रा में न जाने का निर्णय लिया है?”सुभद्रः “निन्दा सुनने की अपेक्षा यहाँ बैठे रहना क्या बुरा है?”बुद्धः “निन्दा एक ऐसी ज्वाला है, जो जगत के किसी भी महापुरुष को स्पर्श किये बिना नहीं रहती तो उससे तथागत भला कैसे छूट सकते हैं?जैसे सूर्य का स्वभाव प्रकाश एवं जल का स्वभाव शीतलता है वैसे ही संत का स्वभाव करुणा और परहितपरायणता होता है। हमें अपना स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिए। शास्त्र कहते हैं कि निन्दक जिसकी निन्दा करता है उसके पापों का भी वह भागीदार बन जाता है अतैव हमें तो मात्र अपने धर्म में ही दृढ़ता रखनी चाहिए।”जिस तथागत के हृदय में सारे संसार के लिए प्रेम और करुणा का सरोवर छलकता था उनकी भी निन्दा करने में दुष्ट निन्दकों ने कुछ बाकी नहीं छोड़ा था। वस्तुतः इस विचित्र संसार ने जगत के प्रत्येक महापुरुष को तीखा-कड़वा अनुभव कराया है।

(बापू आसाराम जी के सत्संग प्रवचनों में से)

सोमवार, 18 मई 2009

ज्येष्ठ मास की अपरा एकादशी..

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? मैं उसका माहात्मय सुनना चाहता हूँ। उसे बताने की कृपा कीजिये।
भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन ! आपने सम्पूर्ण लोकों के हित के लिए बहुत उत्तम बात पूछी है। राजेंद्र ! ज्येष्ठ (गुजरात-महाराष्ट्र के अनुसार वैशाख) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम 'अपरा' है। यह बहुत पुण्य प्रदान करनेवाली और बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाली है। ब्रह्महत्या से दबा हुआ, गोत्र की हत्या करनेवाला, गर्भस्थ बालक को मारनेवाला, परनिंदक तथा परस्त्रीलम्पट पुरुषः भी 'अपरा एकादशी' के सेवन से निश्चय ही पापरहित हो जाता है। जो झूठी गवाही देता है, माप-तौल में धोखा देता है, बिना जाने ही नक्षत्रों की गणना करता है और कूटनीति से आयुर्वेद का ज्ञाता बनकर वैद्य का काम करता है.... ये सब नरक में निवास करनेवाले प्राणी हैं। परन्तु 'अपरा एकादशी' के सेवन से ये भी पाप रहित हो जाते हैं। यदि कोई क्षत्रिय अपने क्षात्रधर्म का परित्याग करके युद्ध से भागता है तो वह क्षत्रियोचित धर्म भ्रष्ट होने के करण घोर नरक में पड़ता है। जो शिष्य विद्या प्राप्त करके स्वयं ही गुरुनिंदा करता है वह भी महापातकों से युक्त होकर भयंकर नरक में गिरता है। किंतु 'अपरा एकादशी' के सेवन से ऐसे मनुष्य भी सद्गति को प्राप्त होते हैं।
माघ में जब सूर्य मकर राशि पर स्थित हो, उस समय प्रयाग में स्नान करनेवाले मनुष्यों को जो पुण्य प्राप्त होता है, काशी में शिवरात्रि का व्रत करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, गया में पिंडदान करके पितरों को तृप्ति प्रदान करनेवाला पुरूष जिस पुण्य का भागी होता है, बृहस्पति के सिंह राशि पर स्थित होने पर गोदावरी में स्नान करनेवाला मानव जिस फल को प्राप्त करता है, बद्रिकाश्रम की यात्रा के समय भगवान् केदार के दर्शन से तथा बदरीतीर्थ के सेवन से जो पुण्य-फल उपलब्ध होता है तथा सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में दक्षिणासहित यज्ञ करके हाथी, घोड़ा और सुवर्ण दान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, 'अपरा एकादशी' के सेवन से भी मनुष्य वैसे ही फल प्राप्त करता है। 'अपरा' को उपवास करके भगवान् वामन की पूजा करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो श्री विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। इसको पढ्ने और सुनने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है॥
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

सोमवार, 4 मई 2009

वैशाख मास की मोहिनी एकादशी..

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! वैशाख मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? उसका क्या फल होता है? उसके लिए कौन सी विधि है?
भगवान श्रीकृष्ण बोले : धर्मराज ! पूर्वकाल में परम बुद्धिमान श्री रामचंद्र जी ने महर्षि वशिष्ठ्जी से यही बात पूछी थी, जिसे आज तुम मुझसे पूछ रहे हो।
श्री राम ने कहा : भगवन ! जो समस्त पापों का क्षय तथा सब प्रकार के दु:खों का निवारण करनेवाला, व्रतों में उत्तम व्रत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ।
वशिष्ठ्जी बोले : श्री राम ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। मनुष्य तुम्हारा नाम लेने से पापों से शुद्ध हो जाता है। तथापि लोगों के हित की इच्छा से मैं पवित्रों-में-पवित्र उत्तम व्रत का वर्णन करूँगा। वैशाख मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका नाम 'मोहिनी' है। वह सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है। उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य मोहजाल तथा पातक-समूह से छुटकारा प् जाते हैं।
सरस्वती नदी के रमणीय तट भद्रावती नाम की सुंदर नगरी है। वहां धृतिमान नामक राजा, जो चन्द्रवंश में उत्पन और सत्यप्रतिज्ञ थे, राज्य करते थे । उसी नगर में एक वैश्य रहता था जो धनधान्य से परिपूर्ण समृद्धिशाली था, उसका नाम था धनपाल वह सदा पुन्यकर्म में ही लगा रहता था दूसरों के लिए पौसला (प्याऊ), कुआँ, मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवाया करता था। भगवान विष्णु की भक्ति में उसका हार्दिक अनुराग था। वह सदा शान्त रहता था। उसके पाँच पुत्र थे। सुमना, द्युतिमान, मेधावी, सुकृत तथा धृष्ट्बुद्धि । धृष्ट्बुद्धि पांचवा था। वह सदा बड़े-बड़े पापों में संलग्न रहता था। जुये आदि दुर्व्यसनों में उसकी बड़ी आसक्ति थी। वह वेश्याओं से मिलने के लिये लालायित रहता था। उसकी बुद्धि न तो देवताओं के पूजन में लगती थी और न ही पितरों तथा ब्राहमणों के सत्कार में।
वह दुष्टात्मा अन्याय के मार्ग पर चलकर पिता का धन बरबाद किया करता था। एक दिन वह वेश्या के गले में बाहें डाले चौराहे पर घूमता देखा गया। तब पिता ने उसे घर से निकाल दिया तथा बन्धु-बांधवों ने भी उसका परित्याग कर दिया। अब वह दिन-रात दु:ख और शोक में डूबा तथा कष्ट-पर-कष्ट उठता हुआ इधर-उधर भटकने लगा। एक दिन किसी पुण्य के उदय होने से वह महर्षि कौँन्डिन्य के आश्रम जा पहुँचा। वैशाख का महीना था। तपोधन कौँन्डिन्य गंगा जी में स्नान करके आए थे। धृष्ट्बुद्धि शोक के भार से पीड़ित हो मुनिवर कौँन्डिन्य के पास गया और हाथ जोड़ सामने खड़ा होकर बोला : 'ब्रह्मन ! द्विजश्रेष्ट ! मुझ पर दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्य के प्रभाव से मेरी मुक्ति हो।'
कौँन्डिन्य बोले : वैशाख के शुक्ल पक्ष में 'मोहिनी' नाम से प्रसिद्द एकादशी का व्रत करो। 'मोहिनी' को उपवास करने पर प्राणियों के अनेक जन्मों के किए हुए मेरु पर्वत जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं।'
वशिष्ठ जी कहते हैं : श्री रामचंद्र ! मुनि का यह वचन सुनकर धृष्ट्बुद्धि का चित्त प्रसन्न हो गया। उसने कौँन्डिन्य के उपदेश से विधिपूर्वक 'मोहिनी एकादशी' का व्रत किया। नृपश्रेष्ठ ! इस व्रत के करने से वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारण कर गरुड़ पर आरूढ़ हो सब प्रकार के उपद्रवों से रहित श्रीविष्णुधाम को चला गया। इस प्रकार यह 'मोहिनी' का व्रत बहुत उत्तम है। इसके पढने और सुनने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)