(बापू आसाराम जी के सत्संग प्रवचनों में से)
मंगलवार, 19 मई 2009
प्रभु! परम प्रकाश की ओर ले चल..
इस संसार में सज्जनों, सत्पुरुषों और संतों को जितना सहन करना पड़ता है उतना दुष्टों को नहीं। ऐसा मालूम होता है कि इस संसार ने सत्य और सत्त्व को संघर्ष में लाने का मानो ठेका ले रखा है। यदि ऐसा न होता तो गाँधी को गोलियाँ नहीं खानी पड़ती, ईसामसीह को सूली पर न लटकना पड़ता, दयानन्द को जहर न दिया जाता और लिंकन व कैनेडी की हत्या न होती।इस संसार का कोई विचित्र रवैया है, रिवाज प्रतीत होता है कि इसका अज्ञान-अँधकार मिटाने के लिए जो अपने आपको जलाकर प्रकाश देता है, संसार की आँधियाँ उस प्रकाश को बुझाने के लिए दौड़ पड़ती हैं। टीका, टिप्पणी, निन्दा, ग़लत चर्चाएँ और अन्यायी व्यवहार की आँधी चारों ओर से उस पर टूट पड़ती है।सत्पुरुषों की स्वस्थता ऐसी विलक्षण होती है कि इन सभी बवंडरों (चक्रवातों) का प्रभाव उन पर नहीं पड़ता। जिस प्रकार सच्चे सोने को किसी भी आग की भट्ठी का डर नहीं होता उसी प्रकार संतजन भी संसार के ऐसे कुव्यवहारों से नहीं डरते। लेकिन उन संतों के प्रशंसकों, स्वजनों, मित्रों, भक्तों और सेवकों को इन अधम व्यवहारों से बहुत दुःख होता है।महापुरुष के मन में कदाचित् कोई प्रतिकार पैदा हो तो यही किः “हे दुनिया! तेरी भलाई के लिए हम यहाँ आए थे, किन्तु तू हमें पहचान न सकी। यहाँ आने का हमारा कोई दूसरा प्रयोजन नहीं था। हमने तो तेरे कल्याण के लिए ही देह धारण की और तूने हमारी ही अवहेलना की, अनादर किया? हमें तुझसे कुछ लेना नहीं था। हम तो तुझे प्रेम से अमृत देने के लिए बैठे थे। तूने उसका अनादर किया और हमारे सामने विष वमन करना शुरु किया। खैर तेरा रास्ता तुझे मुबारक और हम अपने आप में मस्त।अन्धकार, जिसका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं होता, अकारण ही प्रकाश की निन्दा करता है। मनुष्य की प्रकृति में यह अन्धकार अज्ञान और जड़ता के रूप में स्थित है। यह जब अपना जौहर दिखाता है तब हैरानी परेशानी पैदा कर देता है उसे नष्ट करना और परम दिव्यता के प्रकाश की आराधना करना इसी का नाम ही साधना है। सभी संत विभिन्न रूप में हमें इस साधना के मार्ग की ओर ले जाते हैं। घाटी का उबड़खाबड़ रास्ता छोड़कर हम परम दिव्यता के प्रकाशित पथ पर अग्रसर बनें ऐसी प्रार्थना के साथ…॥गहन अन्धकार से प्रभु!परम प्रकाश की ओर ले चल…..एक बार तथागत बुद्ध भगवान के पास आकर उनके शिष्य सुभद्र ने निवेदन कियाः “प्रभु! अब हमें यात्रा में न भेजें। अब मैं स्थानिक संघ में रहकर ही भिक्षुओं की सेवा करना चाहता हूँ।”बुद्धः “क्यों? क्या तुम्हें यात्रा में कोई कटु अनुभव हुआ?”सुभद्रः “हाँ, यात्रा में मैंने लोगों को तथागत की तथा धर्मगत की खूब निन्दा करते हुए सुना। वे ऐसी टीकाएँ करते हैं कि उसे सुना नहीं जा सकता।”बुद्धः “क्या इसीलिए तुमने यात्रा में न जाने का निर्णय लिया है?”सुभद्रः “निन्दा सुनने की अपेक्षा यहाँ बैठे रहना क्या बुरा है?”बुद्धः “निन्दा एक ऐसी ज्वाला है, जो जगत के किसी भी महापुरुष को स्पर्श किये बिना नहीं रहती तो उससे तथागत भला कैसे छूट सकते हैं?जैसे सूर्य का स्वभाव प्रकाश एवं जल का स्वभाव शीतलता है वैसे ही संत का स्वभाव करुणा और परहितपरायणता होता है। हमें अपना स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिए। शास्त्र कहते हैं कि निन्दक जिसकी निन्दा करता है उसके पापों का भी वह भागीदार बन जाता है अतैव हमें तो मात्र अपने धर्म में ही दृढ़ता रखनी चाहिए।”जिस तथागत के हृदय में सारे संसार के लिए प्रेम और करुणा का सरोवर छलकता था उनकी भी निन्दा करने में दुष्ट निन्दकों ने कुछ बाकी नहीं छोड़ा था। वस्तुतः इस विचित्र संसार ने जगत के प्रत्येक महापुरुष को तीखा-कड़वा अनुभव कराया है।
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