सोमवार, 27 नवंबर 2023

मार्गशीर्ष / अगहन माह का महत्व (Margashirsha Month Significance)

श्रीमद्भागवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने मार्गशीष माह को सभी महीनों में सर्वोत्तम महीना कहा है। बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्। मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर अर्थात - मैं सामों में बृहत्साम, छन्दों में गायत्री, मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसन्त ऋतु मैं हूँ। श्रीमद्भागवद गीता के अध्याय १० के ३५वे श्लोक में से भगवान श्रीकृष्ण ने स्वंय को मार्गशीर्ष का महीना बताया है. मार्गशीर्ष माह में पालने योग्य नियम (Margashirsha Month Rules) इस महीने में तीर्थ स्नान करने से अनंत गुना पुण्य मिलता है। साथ ही इस महीने में शंख पूजन का भी विशेष महत्व है। घर में रखे साधारण शंख को ही श्रीकृष्ण का पाञ्चजन्य शंख समझकर उसकी पूजा करनी चाहिए। निम्नलिखित मन्त्रों में से कोई एक मन्त्र चुनकर भगवान वासुदेव का चिंतन विशेष लाभदायक होता है। ॐ कृं कृष्णाय नम: ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय ऊँ नमो भगवते नन्दपुत्राय ऊँ कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम: कर्पूर से भगवान की आरती और श्री तुलसी जी की सेवा, मनोवांछित फल की प्राप्ति में सहायक होते हैं। Disclaimer: यह जानकारी मान्यताओं पर आधारित है।

रविवार, 12 जून 2011

समस्त पापनाशक स्तोत्र

भगवान वेदव्यास द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक 'अग्नि पुराण' में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दिये गये विभिन्न उपदेश हैं। इसी के अंतर्गत इस पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनतावश चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित्त कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है। उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है। इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम 'समस्त पापनाशक स्तोत्र' है।

निम्निलिखित प्रकार से भगवान नारायण की स्तुति करें-

पुष्करोवाच

विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे नमः।

नमामि विष्णुं चित्तस्थमहंकारगतिं हरिम्।।

चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम्।

विष्णुमीड्यमशेषेण अनादिनिधनं विभुम्।।

विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत्।

यच्चाहंकारगो विष्णुर्यद्वष्णुर्मयि संस्थितः।।

करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च।

तत् पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते।।

ध्यातो हरति यत् पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात्।

तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्रणतार्तिहरं हरिम्।।

जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः।

हस्तावलम्बनं विष्णु प्रणमामि परात्परम्।।

सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज।

हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते।।

नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव।

दुरूक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाघं नमोऽस्तु ते।।

यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना।

अकार्यं महदत्युग्रं तच्छमं नय केशव।।

बह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण।

जगन्नाथ जगद्धातः पापं प्रशमयाच्युत।।

यथापराह्ने सायाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि।

कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता।।

जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।

नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम्।।

शरीरं में हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।

पापं प्रशमयाद्य त्वं वाक्कृतं मम माधव।।

यद् भुंजन् यत् स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद यदास्थितः।

कृतवान् पापमद्याहं कायेन मनसा गिरा।।

यत् स्वल्पमपि यत् स्थूलं कुयोनिनरकावहम्।

तद् यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात्।।

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत्।

तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु।।

यत् प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शादिवर्जितम्।

सूरयस्तत् पदं विष्णोस्तत् सर्वं शमयत्वघम्।।

(अग्नि पुराणः 172.2-98)

माहात्म्यम्

पापप्रणाशनं स्तोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि।

शारीरैर्मानसैर्वाग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते।।

सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम्।

तस्मात् पापे कृते जप्यं स्तोत्रं सर्वाघमर्दनम्।।

प्रायश्चित्तमघौघानां स्तोत्रं व्रतकृते वरम्।

प्रायश्चित्तैः स्तोत्रजपैर्व्रतैर्नश्यति पातकम्।।

(अग्नि पुराणः 172.17-29)

अर्थः पुष्कर बोलेः "सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है। श्री हरि विष्णु को नमस्कार है। मैं अपने चित्त में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरि को नमस्कार करता हूँ। मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनन्त और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ। सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है। विष्णु मेरे चित्त में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मेरे अहंकार में प्रतिष्ठित हैं और विष्णु मुझमें भी स्थित हैं।

वे श्री विष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिंतन से मेरे पाप का विनाश हो। जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करने वाले उन पापापहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।

मैं इस निराधार जगत में अज्ञानांधकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देने वाले परात्परस्वरूप श्रीविष्णु के सम्मुख नतमस्तक होता हूँ। सर्वेश्वरेश्वर प्रभो !कमलनयन परमात्मन् ! हृषीकेश ! आपको नमस्कार है। इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो ! आपको नमस्कार है। नृसिंह ! अनन्तस्वरूप गोविन्द ! समस्त भूत-प्राणियों की सृष्टि करने वाले केशव ! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिंतन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये, आपको नमस्कार है। केशव ! अपने मन के वश में होकर मैंने जो न करने योग्य अत्यंत उग्र पापपूर्ण चिंतन किया है, उसे शांत कीजिये। परमार्थपरायण, ब्राह्मणप्रिय गोविन्द ! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले जगन्नाथ ! जगत का भरण-पोषण करने वाले देवेश्वर ! मेरे पाप का विनाश कीजिये। मैंने मध्याह्न, अपराह्न, सायंकाल एवं रात्रि के समय जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो, 'पुण्डरीकाक्ष', 'हृषीकेश', 'माधव' आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें। कमलनयन ! लक्ष्मीपते ! इन्द्रियों के स्वामी माधव ! आज आप मेरे शरीर एवं वाणी द्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये। आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शरीर से जो भी नीच योनि एवं नरक की प्राप्ति कराने वाले सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किये हों, भगवान वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हो जायें। जो परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायें। जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुनः लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है, श्रीविष्णु का वह परम पद मेरे सम्पूर्ण पापों का शमन करे।"

माहात्म्यः जो मनुष्य पापों का विनाश करने वाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। इसलिए किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करें। यह स्तोत्र पापसमूहों के प्रायश्चित के समान है। कृच्छ्र आदि व्रत करने वाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र-जप और व्रतरूप प्रायश्चित से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए इनका अनुष्ठान करना चाहिए।


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साभार : परम पूजनीय संत श्री आसाराम जी आश्रम की वेब साईट

सोमवार, 3 जनवरी 2011

ग्रहण के समय करणीय-अकरणीय

चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के समय संयम रखकर जप-ध्यान करने से कई गुना फल होता है। श्रेष्ठ साधक उस समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृत का स्पर्श करके 'ॐ नमो नारायणाय' मंत्र का आठ हजार जप करने के पश्चात ग्रहणशुद्ध होने पर उस घृत को पी ले। ऐसा करने से वह मेधा (धारणाशक्ति), कवित्वशक्ति तथा वाकसिद्धि प्राप्त कर लेता है।
देवी भागवत में आता हैः सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक में वास करता है। फिर वह उदर रोग से पीड़ित मनुष्य होता है फिर गुल्मरोगी, काना और दंतहीन होता है। अतः सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर (12 घंटे) पूर्व और चन्द्र ग्रहण में तीन प्रहर ( 9 घंटे) पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए। बूढ़े, बालकक और रोगी डेढ़ प्रहर (साढ़े चार घंटे) पूर्व तक खा सकते हैं। ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो, उसका शुद्ध बिम्ब देखकर भोजन करना चाहिए।
ग्रहण वेध के पहले जिन पदार्थों में कुश या तुलसी की पत्तियाँ डाल दी जाती हैं, वे पदार्थ दूषित नहीं होते। जबकि पके हुए अन्न का त्याग करके उसे गाय, कुत्ते को डालकर नया भोजन बनाना चाहिए।
ग्रहण के स्पर्श के समय स्नान, मध्य के समय होम, देव-पूजन और श्राद्ध तथा अंत में सचैल(वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिए। स्त्रियाँ सिर धोये बिना भी स्नान कर सकती हैं।
ग्रहणकाल में स्पर्श किये हुए वस्त्र आदि की शुद्धि हेतु बाद में उसे धो देना चाहिए तथा स्वयं भी वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए।
ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जररूतमंदों को वस्त्र और उनकी आवश्यक वस्तु दान करने से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है।
ग्रहण के समय कोई भी शुभ या नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।
ग्रहण के समय सोने से रोगी, लघुशंका करने से दरिद्र, मल त्यागने से कीड़ा, स्त्री प्रसंग करने से सूअर और उबटन लगाने से व्यक्ति कोढ़ी होता है। गर्भवती महिला को ग्रहण के समय विशेष सावधान रहना चाहिए।
भगवान वेदव्यास जी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- सामान्य दिन से चन्द्रग्रहण में किया गया पुण्यकर्म (जप, ध्यान, दान आदि) एक लाख गुना और सूर्य ग्रहण में दस लाख गुना फलदायी होता है। यदि गंगा जल पास में हो तो चन्द्रग्रहण में एक करोड़ गुना और सूर्यग्रहण में दस करोड़ गुना फलदायी होता है।
ग्रहण के समय गुरुमंत्र, इष्टमंत्र अथवा भगवन्नाम जप अवश्य करें, न करने से मंत्र को मलिनता प्राप्त होती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 21, अंक 216

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शनिवार, 1 अगस्त 2009

श्रावण मास शुक्लपक्ष की "पुत्रदा एकादशी"..

युधिष्ठर ने पूछा : मधुसूदन ! श्रावण मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? कृप्या मेरे सामने उसका वर्णन कीजिए।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले : राजन ! प्राचीन काल की बात है। द्वापर युग के प्रारम्भ का समय था। महिष्मतीपुर में राजा महीजित अपने राज्य का पालन करते थे किंतु उन्हें कोई पुत्र नहीं था, इसलिए वह राज्य उन्हें सुखदायक नहीं प्रतीत होता था। अपनी अवस्था अधिक देख राजा को बड़ी चिंता हुई।प्रजावर्ग उन्होंने प्रजावर्ग में बैठकर इस प्रकार कहा :
'प्रजाजनों ! इस जन्म में मुझसे कोई पातक नहीं हुआ है। मैंने अपने खजाने में अन्याय से कमाया हुआ धन नहीं जमा किया है। ब्राहमणों और देवताओं का धन भी मैंने कभी नहीं लिया है। पुत्रवत प्रजा का पालन किया है। धर्म से पृथ्वी पर अधिकार जमाया है। दुष्टों को, चाहे वे बन्धु और पुत्रों के समान ही क्यों न रहे हों, दंड दिया है। शिष्ट पुरुषों का सदा सम्मान किया है और किसी को द्वेष का पात्र नहीं समझा। फिर क्या कारण है, जो मेरे घर में आज तक पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ? आप लोग इसका विचार करें।'
राजा के ये वचन सुनकर प्रजा और पुरोहितों के साथ ब्राहमणों ने उनके हित का विचार करके गहन वन में प्रवेश किया। राजा का कल्याण चाहनेवाले वे सभी लोग इधर उधर घूमकर ऋषि सेवित आश्रमों की तलाश करने लगे। इतने में उन्हें मुनि श्रेष्ठ लोमेश जी के दर्शन हुए।
लोमेश जी धर्म के तत्त्वज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रों के विशिष्ट विद्वान, दीर्घायु और महात्मा हैं। उनका शरीर लोम से भरा हुआ है। वे ब्रह्मा जी के समान तेजस्वी हैं। एक-एक कल्प बीतने पर उनके शरीर का एक-एक लोम विशीर्ण होता है, टूट का गिरता है, इसीलिए उनका नाम लोमेश हुआ है, वे महामुनि तीनो कालों की बातें जानते हैं।
उन्हें देख कर सब लोगों को बड़ा हर्ष हुआ। लोगों को अपने निकट आया देख लोमेश जी ने पूछा : "तुम सब लोग किसलिए यहाँ आए हो? अपने आगमन का कारण बताओ। तुम लोगों केलिए जो हितकर कार्य होगा, उसे मैं अवश्य करूँगा।'
प्रजाजनों ने कहा : ब्राह्मण ! इस समय महीजित नाम वाले जो राजा हैं, उन्हें कोई पुत्र नहीं है। हम लोग उन्हीं की प्रजा हैं। जिनका उन्होंने पुत्र की भांति पालन किया है। उन्हें पुत्रहीन देख, उनके दुःख से दु:खित हो हम तपस्या करने का दृढ़ निश्चय करके यहाँ आए हैं। द्विजोत्तम ! राजा के भाग्य से इस समय हमें आपका दर्शन मिल गया है। महापुरुषों के दर्शन से ही मनुष्यों के सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं। मुने ! अब हमें उस उपाय का उपदेश कीजिये, जिससे राजा को पुत्र की प्राप्ति हो।

उनकी बात सुनके मह्र्षि लोमेश दो घड़ी केलिए ध्यानमग्न हो गए। तत्पश्चात राजा के प्राचीन जन्म का वृतांत जानकर उन्होंने कहा 'प्रजावृन्द ! सुनो। राजा महीजित पूर्वजन्म में मनुष्यों को चूसनेवाला धनहीन वैश्य था। वह वैश्य गाँव-गाँव घूम कर व्यापार किया करता था। एक दिन ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में दशमी तिथि को जब दोपहर का सूर्य तप रहा था, वह किसी गाँव की सीमा में एक जलाशय पर पहुँचा। पानी से भरी हुई बावली देखकर वैश्य ने वहां जल पीने का विचार किया। इतने में वहां अपने बछडे के साथ एक गौ भी आ पहुँची। वह प्यास से व्याकुल और ताप से पीड़ित थी, अत: बावली में जाकर जल पीने लगी। वैश्य ने पानी पीती हुई गौ को हांककर दूर हटा दिया और स्वयं पानी पिने लगा। उसी पापकर्म के कारण राजा इस समय पुत्रहीन हुए है। किसी जन्म के पुण्य से इन्हे निष्कण्टक राज्य की प्राप्ति हुई है।' प्रजाजनों ने कहा : मुने ! पुराणों में उल्लेख है कि प्रायश्चितरूपी पुण्य से पाप नष्ट होते हैं, अत: ऐसे पुण्यकर्म का उपदेश कीजिये, जिससे उस पाप का नाश हो जाए।
लोमेश जी बोले : प्रजाजनों ! श्रावण मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, वह 'पुत्रदा' के नाम से विख्यात है। वह मनोवांछित फल प्रदान करनेवाली है। तुम लोग उसीका व्रत करो।
यह सुनकर प्रजाजनों ने मुनि को नमस्कार किया। और नगर में आकर विधिपूर्वक 'पुत्रदा एकादशी' के व्रत का अनुष्ठान किया। उन्होंने विधिपूर्वक जागरण भी किया और उसका निर्मल पुण्य राजा को अर्पण कर दिया। तत्पश्चात रानी ने गर्भ धारण किया और प्रसव का समय आने पर बलवान पुत्र को जन्म दिया।
इसका महातम्य सुनकर मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है तथा इहलोक में सुख पाकर परलोक में स्वर्गीय गति को प्राप्त होता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

श्रावन मास की कामिका एकादशी..

युधिष्टर ने पूछा : गोविन्द ! वासुदेव ! आपको मेरा नमस्कार है ! श्रावण मास (गुजरात-महाराष्ट्र के अनुसार आषाढ) के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है? कृपया उसका वर्णन कीजिये।

भगवान श्री कृष्ण बोले : राजन ! सुनो। मैं तुम्हे एक पापनाशक उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसे पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नारदजी के पूछने पर कहा था।



नारद जी ने प्रश्न किया : हे भगवन ! हे कमलासन ! मैं आपसे यह सुनना चाहता हूँ की श्रावण के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसके देवता कौन हैं तथा उससे कौन सा पुण्य होता है? प्रभो ! यह सब बताइए।

ब्रह्माजी ने कहा : नारद सुनो। मैं सम्पूर्ण लोकों के हित की इच्छा से तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ। श्रावण मास में जो कृष्णपक्ष की एकादशी होती है, उसका नाम 'कामिका' है। उसके स्मरण मात्र से वाजपये यज्ञ का फल मिलता है। उस दिन श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव और मधुसुदन आदि नामों से भगवान का पूजन करना चाहिए।

भगवान् श्री कृष्ण के पूजन से जो फल मिलता है, वह गंगा, काशी, नैमिषारण्य तथा पुष्कर क्षेत्र में भी सुलभ नहीं है। सिहं राशिः के बृहस्पति होने पर तथा व्यतिपात और दंडयोग में गोदावरी स्नान से जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल भगवान् श्री कृष्ण के पूजन से भी मिलता है।

जो समुद्र और वन सहित समूची पृथ्वी का दान करता है तथा जो 'कामिका एकादशी' का व्रत करता है। वे दोनों समान फल के भागी माने गए हैं।

जो ब्याई हुयी गाय को अन्यान्य सामग्रियों सहित दान करता है, उस मनुष्य को जिस फल की प्राप्ति होती है, वही 'कामिका एकादशी' का व्रत करनेवाले को मिलता है। जो नरश्रेष्ट श्रावण मास में भगवान् श्रीधर का पूजन करता है, उसके द्वारा गन्धर्वों और नागों सहित सम्पूर्ण देवताओं की पूजा हो जाती है।
लालमणि, मोती, वैदूर्य और मूंगे आदि से पूजित होकर भी भगवान विष्णु वैसे खुश नहीं होते जैसे तुलसीदल से पूजित होने पर होते हैं। जिसने तुलसी की मंजरियों से श्री केशव का पूजन कर लिया है उसके जन्म भर का पाप निश्चय ही नष्ट हो जाता है।
या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी
रोगाणामभिवंदिता निरसनी सिक्तान्तक्त्रासिनी।
प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवत: कृष्णस्य संरोपिता
न्यास्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नम:॥

'जो दर्शन करने पर सारे पाप समुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुंचती है, आरोपित करने पर भगवान् श्री कृष्ण के समीप ले जाती है और भगवान् के चरणों में चढाने पर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवी को नमस्कार है!' (पद्म पु.उ.खंड : ५६:२२)

जो मनुष्य एकादशी को दिन-रात दीप दान करता है, उसके पुण्य की संख्या चित्रगुप्त भी नहीं जानते। एकादशी के दिन भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख जिसका दीपक जलता है, उसके पितर स्वर्गलोक में स्थित होकर अमृतपान से तृप्त होते हैं। घी या तिल के तेल से भगवान् के सामने दीपक जलाकर मनुष्य देह-त्याग के पश्चात करोड़ों दीपकों से पूजित हो स्वर्गलोक में जाता है।'
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं : युधिष्टिर ! यह तुम्हारे सामने मैंने 'कामिका एकादशी' की महिमा का वर्णन किया है। 'कामिका' सब पातकों को हरनेवाली है, अत: मानवों को इसका व्रत अवश्य करना चाहिए। यह स्वर्गलोक तथा महान पुण्यफल प्रदान करनेवाली है। जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका माहात्मय श्रवण करता है, वह सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णुलोक में जाता है।




(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

आषाढ मास शुक्लपक्ष की शयनी एकादशी..

युधिष्ठर ने पूछा : भगवन ! आषढ मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? उसका नाम और विधि क्या है ? यह बताने की कृपा करें।
भगवान् श्री कृष्ण बोले : राजन ! आषढ शुकाल्पक्ष की एकादशी का नाम 'शयनी' है। मैं उसका वर्णन करता हूँ। वह महान पुण्यमयी, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, सब पापों को हरनेवाली तथा उत्तम व्रत है। आषढ शुक्लपक्ष में 'शयनी एकादशी' के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवन विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया है, उन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पुजन कर लिया है। 'हरि शयनी एकादशी' के दिन मेरा एक स्वरुप राजा बलि के यहाँ रहता है और दूसरा क्षीरसागर में शेषनाग की शय्या पर तब तक शयन करता है, जब तक आगामी कार्तिक की एकादशी नहीं आ जाती, अत: आषढ शुक्लपक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्लपक्ष की एकादशी तक मनुष्य को भली भांति धर्म अचरण करना चाहिए। जो मनुष्य इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है, इस कारण यतन पूर्वक इस एकादशी का व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। एकादशी की रात में जागरण करके शंख, चक्र, गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। ऐसा करनेवाले पुरुष के पुन्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं। राजन ! जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता है, वह जाति का चंडाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय करनेवाला है। जो मनुष्य दीपदान, पलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैं, वे मेरे प्रिय हैं। चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैं, इसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए। सावन में साग, भादों में दही, क्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए। जो चौमासे में ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। राजन ! एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, अत: सदा इसका व्रत करना चाहिए। कभी भूलना नहीं चाहिए।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

गुरुवार, 18 जून 2009

आषाढ मास की योगिनी एकादशी..

युधिष्ठर ने पूछा : वासुदेव ! आषाढ के कृष्ण पक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिये।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ ! आषाढ (गुजरात-महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम 'योगिनी' है। यह बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाली है। संसार सागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है।
अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं। उनका हेममाली नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था। हेममाली की पत्नी का नाम विशालाक्षी था। वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी आसक्त रहता था। एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका। इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे। उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की। जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : 'यक्षो ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है?'
यक्षों ने कहा : राजन ! वह तो पत्नी की कामना में असक्त हो घर में ही रमन कर रहा है।
यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गए और तुंरत ही हेममाली को बुलवाया। वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया। उसे देखकर कुबेर बोले 'ओ पापी! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी! तुने भगवान् की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यंत्र चला जा।'
कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया। कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव-पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरण शक्ति लुप्त नहीं हुई। तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरी के शिखर पर गया। वहां पर मुनिवर मार्कंडेय जी का उसे दर्शन हुआ। पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया। मुनिवर मार्कंडेय ने उसे भय से कांपते देख कहा : 'तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया?'

यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ। मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव-पूजा के समय कुबेर को दिया करता था। एक दिन पत्नी-सहवास के सुख में फँस जेने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रांत होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया। मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता है। यह जानकर मुझ अपराधी को कर्तव्य का उपदेश दीजिये।
मार्कंडेय जी ने कहा : तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्यानप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ। तुम आषाढ मास के कृष्ण पक्ष की 'योगिनी एकादशी' का व्रत करो। इस व्रत के पुन्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जाएगा।
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं : राजन ! मार्कंडेय जी के उपदेश से उसने 'योगिनी एकादशी' का व्रत किया, जिससे उसके शरीर का कोढ़ दूर हो गया। उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया।
नृपश्रेष्ठ ! यह 'योगिनी' का व्रत ऐसा पुण्यशाली है की अट्ठासी हज़ार ब्राहमणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल 'योगिनी एकादशी' का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है। 'योगिनी' महान पापों को शांत करनेवाली और महान पुण्य-फल देनेवाली है। इस महात्म्य को पढ्ने सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)