शनिवार, 1 अगस्त 2009

श्रावण मास शुक्लपक्ष की "पुत्रदा एकादशी"..

युधिष्ठर ने पूछा : मधुसूदन ! श्रावण मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? कृप्या मेरे सामने उसका वर्णन कीजिए।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले : राजन ! प्राचीन काल की बात है। द्वापर युग के प्रारम्भ का समय था। महिष्मतीपुर में राजा महीजित अपने राज्य का पालन करते थे किंतु उन्हें कोई पुत्र नहीं था, इसलिए वह राज्य उन्हें सुखदायक नहीं प्रतीत होता था। अपनी अवस्था अधिक देख राजा को बड़ी चिंता हुई।प्रजावर्ग उन्होंने प्रजावर्ग में बैठकर इस प्रकार कहा :
'प्रजाजनों ! इस जन्म में मुझसे कोई पातक नहीं हुआ है। मैंने अपने खजाने में अन्याय से कमाया हुआ धन नहीं जमा किया है। ब्राहमणों और देवताओं का धन भी मैंने कभी नहीं लिया है। पुत्रवत प्रजा का पालन किया है। धर्म से पृथ्वी पर अधिकार जमाया है। दुष्टों को, चाहे वे बन्धु और पुत्रों के समान ही क्यों न रहे हों, दंड दिया है। शिष्ट पुरुषों का सदा सम्मान किया है और किसी को द्वेष का पात्र नहीं समझा। फिर क्या कारण है, जो मेरे घर में आज तक पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ? आप लोग इसका विचार करें।'
राजा के ये वचन सुनकर प्रजा और पुरोहितों के साथ ब्राहमणों ने उनके हित का विचार करके गहन वन में प्रवेश किया। राजा का कल्याण चाहनेवाले वे सभी लोग इधर उधर घूमकर ऋषि सेवित आश्रमों की तलाश करने लगे। इतने में उन्हें मुनि श्रेष्ठ लोमेश जी के दर्शन हुए।
लोमेश जी धर्म के तत्त्वज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रों के विशिष्ट विद्वान, दीर्घायु और महात्मा हैं। उनका शरीर लोम से भरा हुआ है। वे ब्रह्मा जी के समान तेजस्वी हैं। एक-एक कल्प बीतने पर उनके शरीर का एक-एक लोम विशीर्ण होता है, टूट का गिरता है, इसीलिए उनका नाम लोमेश हुआ है, वे महामुनि तीनो कालों की बातें जानते हैं।
उन्हें देख कर सब लोगों को बड़ा हर्ष हुआ। लोगों को अपने निकट आया देख लोमेश जी ने पूछा : "तुम सब लोग किसलिए यहाँ आए हो? अपने आगमन का कारण बताओ। तुम लोगों केलिए जो हितकर कार्य होगा, उसे मैं अवश्य करूँगा।'
प्रजाजनों ने कहा : ब्राह्मण ! इस समय महीजित नाम वाले जो राजा हैं, उन्हें कोई पुत्र नहीं है। हम लोग उन्हीं की प्रजा हैं। जिनका उन्होंने पुत्र की भांति पालन किया है। उन्हें पुत्रहीन देख, उनके दुःख से दु:खित हो हम तपस्या करने का दृढ़ निश्चय करके यहाँ आए हैं। द्विजोत्तम ! राजा के भाग्य से इस समय हमें आपका दर्शन मिल गया है। महापुरुषों के दर्शन से ही मनुष्यों के सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं। मुने ! अब हमें उस उपाय का उपदेश कीजिये, जिससे राजा को पुत्र की प्राप्ति हो।

उनकी बात सुनके मह्र्षि लोमेश दो घड़ी केलिए ध्यानमग्न हो गए। तत्पश्चात राजा के प्राचीन जन्म का वृतांत जानकर उन्होंने कहा 'प्रजावृन्द ! सुनो। राजा महीजित पूर्वजन्म में मनुष्यों को चूसनेवाला धनहीन वैश्य था। वह वैश्य गाँव-गाँव घूम कर व्यापार किया करता था। एक दिन ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में दशमी तिथि को जब दोपहर का सूर्य तप रहा था, वह किसी गाँव की सीमा में एक जलाशय पर पहुँचा। पानी से भरी हुई बावली देखकर वैश्य ने वहां जल पीने का विचार किया। इतने में वहां अपने बछडे के साथ एक गौ भी आ पहुँची। वह प्यास से व्याकुल और ताप से पीड़ित थी, अत: बावली में जाकर जल पीने लगी। वैश्य ने पानी पीती हुई गौ को हांककर दूर हटा दिया और स्वयं पानी पिने लगा। उसी पापकर्म के कारण राजा इस समय पुत्रहीन हुए है। किसी जन्म के पुण्य से इन्हे निष्कण्टक राज्य की प्राप्ति हुई है।' प्रजाजनों ने कहा : मुने ! पुराणों में उल्लेख है कि प्रायश्चितरूपी पुण्य से पाप नष्ट होते हैं, अत: ऐसे पुण्यकर्म का उपदेश कीजिये, जिससे उस पाप का नाश हो जाए।
लोमेश जी बोले : प्रजाजनों ! श्रावण मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, वह 'पुत्रदा' के नाम से विख्यात है। वह मनोवांछित फल प्रदान करनेवाली है। तुम लोग उसीका व्रत करो।
यह सुनकर प्रजाजनों ने मुनि को नमस्कार किया। और नगर में आकर विधिपूर्वक 'पुत्रदा एकादशी' के व्रत का अनुष्ठान किया। उन्होंने विधिपूर्वक जागरण भी किया और उसका निर्मल पुण्य राजा को अर्पण कर दिया। तत्पश्चात रानी ने गर्भ धारण किया और प्रसव का समय आने पर बलवान पुत्र को जन्म दिया।
इसका महातम्य सुनकर मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है तथा इहलोक में सुख पाकर परलोक में स्वर्गीय गति को प्राप्त होता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

श्रावन मास की कामिका एकादशी..

युधिष्टर ने पूछा : गोविन्द ! वासुदेव ! आपको मेरा नमस्कार है ! श्रावण मास (गुजरात-महाराष्ट्र के अनुसार आषाढ) के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है? कृपया उसका वर्णन कीजिये।

भगवान श्री कृष्ण बोले : राजन ! सुनो। मैं तुम्हे एक पापनाशक उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसे पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नारदजी के पूछने पर कहा था।



नारद जी ने प्रश्न किया : हे भगवन ! हे कमलासन ! मैं आपसे यह सुनना चाहता हूँ की श्रावण के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसके देवता कौन हैं तथा उससे कौन सा पुण्य होता है? प्रभो ! यह सब बताइए।

ब्रह्माजी ने कहा : नारद सुनो। मैं सम्पूर्ण लोकों के हित की इच्छा से तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ। श्रावण मास में जो कृष्णपक्ष की एकादशी होती है, उसका नाम 'कामिका' है। उसके स्मरण मात्र से वाजपये यज्ञ का फल मिलता है। उस दिन श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव और मधुसुदन आदि नामों से भगवान का पूजन करना चाहिए।

भगवान् श्री कृष्ण के पूजन से जो फल मिलता है, वह गंगा, काशी, नैमिषारण्य तथा पुष्कर क्षेत्र में भी सुलभ नहीं है। सिहं राशिः के बृहस्पति होने पर तथा व्यतिपात और दंडयोग में गोदावरी स्नान से जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल भगवान् श्री कृष्ण के पूजन से भी मिलता है।

जो समुद्र और वन सहित समूची पृथ्वी का दान करता है तथा जो 'कामिका एकादशी' का व्रत करता है। वे दोनों समान फल के भागी माने गए हैं।

जो ब्याई हुयी गाय को अन्यान्य सामग्रियों सहित दान करता है, उस मनुष्य को जिस फल की प्राप्ति होती है, वही 'कामिका एकादशी' का व्रत करनेवाले को मिलता है। जो नरश्रेष्ट श्रावण मास में भगवान् श्रीधर का पूजन करता है, उसके द्वारा गन्धर्वों और नागों सहित सम्पूर्ण देवताओं की पूजा हो जाती है।
लालमणि, मोती, वैदूर्य और मूंगे आदि से पूजित होकर भी भगवान विष्णु वैसे खुश नहीं होते जैसे तुलसीदल से पूजित होने पर होते हैं। जिसने तुलसी की मंजरियों से श्री केशव का पूजन कर लिया है उसके जन्म भर का पाप निश्चय ही नष्ट हो जाता है।
या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी
रोगाणामभिवंदिता निरसनी सिक्तान्तक्त्रासिनी।
प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवत: कृष्णस्य संरोपिता
न्यास्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नम:॥

'जो दर्शन करने पर सारे पाप समुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुंचती है, आरोपित करने पर भगवान् श्री कृष्ण के समीप ले जाती है और भगवान् के चरणों में चढाने पर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवी को नमस्कार है!' (पद्म पु.उ.खंड : ५६:२२)

जो मनुष्य एकादशी को दिन-रात दीप दान करता है, उसके पुण्य की संख्या चित्रगुप्त भी नहीं जानते। एकादशी के दिन भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख जिसका दीपक जलता है, उसके पितर स्वर्गलोक में स्थित होकर अमृतपान से तृप्त होते हैं। घी या तिल के तेल से भगवान् के सामने दीपक जलाकर मनुष्य देह-त्याग के पश्चात करोड़ों दीपकों से पूजित हो स्वर्गलोक में जाता है।'
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं : युधिष्टिर ! यह तुम्हारे सामने मैंने 'कामिका एकादशी' की महिमा का वर्णन किया है। 'कामिका' सब पातकों को हरनेवाली है, अत: मानवों को इसका व्रत अवश्य करना चाहिए। यह स्वर्गलोक तथा महान पुण्यफल प्रदान करनेवाली है। जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका माहात्मय श्रवण करता है, वह सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णुलोक में जाता है।




(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

आषाढ मास शुक्लपक्ष की शयनी एकादशी..

युधिष्ठर ने पूछा : भगवन ! आषढ मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? उसका नाम और विधि क्या है ? यह बताने की कृपा करें।
भगवान् श्री कृष्ण बोले : राजन ! आषढ शुकाल्पक्ष की एकादशी का नाम 'शयनी' है। मैं उसका वर्णन करता हूँ। वह महान पुण्यमयी, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, सब पापों को हरनेवाली तथा उत्तम व्रत है। आषढ शुक्लपक्ष में 'शयनी एकादशी' के दिन जिन्होंने कमल पुष्प से कमललोचन भगवन विष्णु का पूजन तथा एकादशी का उत्तम व्रत किया है, उन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओं का पुजन कर लिया है। 'हरि शयनी एकादशी' के दिन मेरा एक स्वरुप राजा बलि के यहाँ रहता है और दूसरा क्षीरसागर में शेषनाग की शय्या पर तब तक शयन करता है, जब तक आगामी कार्तिक की एकादशी नहीं आ जाती, अत: आषढ शुक्लपक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्लपक्ष की एकादशी तक मनुष्य को भली भांति धर्म अचरण करना चाहिए। जो मनुष्य इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है, इस कारण यतन पूर्वक इस एकादशी का व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। एकादशी की रात में जागरण करके शंख, चक्र, गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। ऐसा करनेवाले पुरुष के पुन्य की गणना करने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं। राजन ! जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करता है, वह जाति का चंडाल होने पर भी संसार में सदा मेरा प्रिय करनेवाला है। जो मनुष्य दीपदान, पलाश के पत्ते पर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैं, वे मेरे प्रिय हैं। चौमासे में भगवान विष्णु सोये रहते हैं, इसलिए मनुष्य को भूमि पर शयन करना चाहिए। सावन में साग, भादों में दही, क्वार में दूध और कार्तिक में दाल का त्याग कर देना चाहिए। जो चौमासे में ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। राजन ! एकादशी के व्रत से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, अत: सदा इसका व्रत करना चाहिए। कभी भूलना नहीं चाहिए।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

गुरुवार, 18 जून 2009

आषाढ मास की योगिनी एकादशी..

युधिष्ठर ने पूछा : वासुदेव ! आषाढ के कृष्ण पक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिये।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ ! आषाढ (गुजरात-महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम 'योगिनी' है। यह बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाली है। संसार सागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है।
अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं। उनका हेममाली नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था। हेममाली की पत्नी का नाम विशालाक्षी था। वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी आसक्त रहता था। एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका। इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे। उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की। जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : 'यक्षो ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है?'
यक्षों ने कहा : राजन ! वह तो पत्नी की कामना में असक्त हो घर में ही रमन कर रहा है।
यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गए और तुंरत ही हेममाली को बुलवाया। वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया। उसे देखकर कुबेर बोले 'ओ पापी! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी! तुने भगवान् की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यंत्र चला जा।'
कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया। कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव-पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरण शक्ति लुप्त नहीं हुई। तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरी के शिखर पर गया। वहां पर मुनिवर मार्कंडेय जी का उसे दर्शन हुआ। पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया। मुनिवर मार्कंडेय ने उसे भय से कांपते देख कहा : 'तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया?'

यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ। मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव-पूजा के समय कुबेर को दिया करता था। एक दिन पत्नी-सहवास के सुख में फँस जेने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रांत होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया। मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता है। यह जानकर मुझ अपराधी को कर्तव्य का उपदेश दीजिये।
मार्कंडेय जी ने कहा : तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्यानप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ। तुम आषाढ मास के कृष्ण पक्ष की 'योगिनी एकादशी' का व्रत करो। इस व्रत के पुन्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जाएगा।
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं : राजन ! मार्कंडेय जी के उपदेश से उसने 'योगिनी एकादशी' का व्रत किया, जिससे उसके शरीर का कोढ़ दूर हो गया। उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया।
नृपश्रेष्ठ ! यह 'योगिनी' का व्रत ऐसा पुण्यशाली है की अट्ठासी हज़ार ब्राहमणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल 'योगिनी एकादशी' का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है। 'योगिनी' महान पापों को शांत करनेवाली और महान पुण्य-फल देनेवाली है। इस महात्म्य को पढ्ने सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

शुक्रवार, 5 जून 2009

रामायण मनका १०८ (भाग १)..

रघुपति राघव राजाराम। पतित पावन सीताराम॥
जय रघुनन्दन जय घनशाम। पतित पावन सीताराम॥
भीड़ पड़ी जब भक्त पुकारे। दूर करो प्रभु दु:ख हमारे॥
दशरथ के घर जन्में राम। पतित पावन सीताराम॥१॥
विश्वामित्र मुनीश्वर आए। दशरथ भूप से वचन सुनाये।
संग में भेजे लक्ष्मण राम। पतित पावन सीताराम॥२॥
वन में जाय ताड़का मारी। चरण छुआय अहिल्या तारी॥
ऋषियों के दु:ख हरते राम। पतित पावन सीताराम॥३॥
जनकपुरी रघुनन्दन आए। नगर निवासी दर्शन पाए॥
सीता के मन भाये राम। पतित पावन सीताराम॥४॥
रघुनन्दन ने धनुष चढाया। सब राजों का मान घटाया॥
सीता ने वर पाये राम। पतित पावन सीताराम॥५॥
परशुराम क्रोधित हो आए। दुष्ट भूप मन में हरषाये॥
जनकराय ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥६॥
बोले लखन सुनो मुनि ज्ञानी। संत नहीं होते अभिमानी॥
मीठी वाणी बोले राम। पतित पावन सीताराम॥७॥
लक्ष्मण वचन ध्यान मत दीजो। जो कुछ दण्ड दास को दीजो॥
धनुष तुडइय्या मैं हूँ राम। पतित पावन सीताराम॥८॥
लेकर के यह धनुष चढाओ। अपनी शक्ति मुझे दिखाओ॥
छूवत चाप चढाये राम। पतित पावन सीताराम॥९॥
हुई उर्मिला लखन की नारी। श्रुतिकीर्ति रिपुसूदन प्यारी॥
हुई मांडवी भरत के वाम। पतित पावन सीताराम॥१०॥
अवधपुरी रघुनन्दन आए। घर-घर नारी मंगल गए॥
बारह वर्ष बिताये राम। पतित पावन सीताराम॥११॥
गुरु वशिष्ठ से आज्ञा लीनी। राजतिलक तैयारी कीनी॥
कल को होंगे राजा राम। पतित पावन सीताराम॥१२॥
कुटिल मंथरा ने बहकायी। केकैई ने यह बात सुनाई॥
दे दो मेरे दो वरदान। पतित पावन सीताराम॥१३॥
मेरी विनती तुम सुन लीजो। पुत्र भरत को गद्दी दीजो॥
होत प्रात: वन भेजो राम। पतित पावन सीताराम॥१४॥
धरनी गिरे भूप तत्काल। लागा दिल में शूल विशाल॥
तब सुमंत बुलवाये राम। पतित पावन सीताराम॥१५॥
राम, पिता को शीश नवाये। मुख से वचन कहा नहिं जाये॥
केकैयी वचन सुनायो राम। पतित पावन सीताराम॥१६॥
राजा के तुम प्राण प्यारे। इनके दुःख हरोगे सारे॥
अब तुम वन में जाओ राम। पतित पावन सीताराम॥१७॥
वन में चौदह वर्ष बिताओ। रघुकुल रीति नीति अपनाओ॥
आगे इच्छा तुम्हारी राम। पतित पावन सीताराम॥१८॥
सुनत वचन राघव हर्षाये। माता जी के मन्दिर आए॥
चरण-कमल में किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥१९॥
माता जी मैं तो वन जाऊँ। चौदह वर्ष बाद फिर आऊं॥
चरण कमल देखूं सुख धाम। पतित पावन सीताराम॥२०॥
सुनी शूल सम जब यह बानी। भू पर गिरी कौशल्या रानी।
धीरज बंधा रहे श्री राम। पतित पावन सीताराम॥२१॥
समाचार सुनी लक्ष्मण आए। धनुष-बाण संग परम सुहाए॥
बोले संग चलूँगा राम। पतित पावन सीताराम॥ २२॥
सीताजी जब यह सुध पाईं। रंगमहल से निचे आईं॥
कौशल्या को किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥ २३॥
मेरी चूक क्षमा कर दीजो। वन जाने की आज्ञा दीजो॥
सीता को समझाते राम। पतित पावन सीताराम॥२४॥
मेरी सीख सिया सुन लीजो। सास ससुर की सेवा कीजो॥
मुझको भी होगा विश्राम। पतित पावन सीताराम॥ २५॥
मेरा दोष बता प्रभु दीजो। संग मुझे सेवा में लीजो॥
अर्द्धांगिनी तुम्हारी राम। पतित पावन सीताराम॥ २६॥
राम लखन मिथिलेश कुमारी। बन जाने की करी तैयारी॥
रथ में बैठ गए सुख धाम। पतित पावन सीताराम॥ २७॥
अवधपुरी के सब नर-नारी। समाचार सुन व्याकुल भारी॥
मचा अवध में अति कोहराम। पतित पावन सीताराम॥२८॥
(क्रमश:)

रामायण मनका १०८ (भाग २)..

श्रृंगवेरपुर रघुबर आए। रथ को अवधपुरी लौटाए॥
गंगा तट पर आए राम। पतित पावन सीताराम॥ २९॥
केवट कहे चरण धुलवाओ। पीछे नौका में चढ़ जाओ॥ पत्थर कर दी नारी राम। पतित पावन सीताराम॥३०॥ लाया एक कठौता पानी। चरण-कमल धोये सुखमानी॥ नाव चढाये लक्ष्मण राम। पतित पावन सीताराम॥३१॥ उतराई में मुंदरी दीन्हीं। केवट ने यह विनती कीन्हीं॥ उतराई नहीं लूँगा राम। पतित पावन सीताराम॥३२॥
तुम आए हम घाट उतारे। हम आयेंगे घाट तुम्हारे॥
तब तुम पार लगाओ राम। पतित पावन सीताराम॥३३॥
भारद्वाज आश्रम पर आए। राम लखन ने शीष नवाए॥
एक रात कीन्हा विश्राम। पतित पावन सीताराम॥३४॥
भाई भरत अयोध्या आए। केकैई को यह वचन सुनाए॥
क्यों तुमने वन भेजे राम। पतित पावन सीताराम॥३५॥
चित्रकूट रघुनन्दन आए। वन को देख सिया सुख पाये॥
मिले भरत से भाई राम। पतित पावन सीताराम॥३६॥
अवधपुरी को चलिए भाई। ये सब केकैई की कुटिलाई॥
तनिक दोष नहीं मेरा राम। पतित पावन सीताराम॥३७॥
चरण पादुका तुम ले जाओ। पूजा कर दर्शन फल पाओ॥
भरत को कंठ लगाए राम। पतित पावन सीताराम॥ ३८॥
आगे चले राम रघुराया। निशाचरों का वंश मिटाया॥
ऋषियों के हुए पूरन काम। पतित पावन सीताराम॥ ३९॥
मुनिस्थान आए रघुराई। शूर्पणखा की नाक कटाई॥
खरदूषन को मारे राम।पतित पावन सीताराम॥ ४०॥
पंचवटी रघुनन्दन आए। कनक मृग 'मारीच' संग धाये॥
लक्ष्मण तुम्हे बुलाते राम। पतित पावन सीताराम॥ ४१॥
रावन साधु वेष में आया। भूख ने मुझको बहुत सताया॥
भिक्षा दो यह धर्म का काम। पतित पावन सीताराम॥ ४२॥
भिक्षा लेकर सीता आई। हाथ पकड़ रथ में बैठी॥
सूनी कुटिया देखी राम। पतित पावन सीताराम॥ ४३॥
धरनी गिरे राम रघुराई। सीता के बिन व्याकुलताई॥
हे प्रिय सीते, चीखे राम। पतित पावन सीता राम॥ ४४॥
लक्ष्मण, सीता छोड़ न आते। जनकदुलारी नहीं गवांते॥
तुमने सभी बिगाड़े काम। पतित पावन सीता राम॥ ४५॥
कोमल बदन सुहासिनी सीते। तुम बिन व्यर्थ रहेंगे जीते॥
लगे चाँदनी जैसे घाम। पतित पावन सीता राम॥ ४६॥
सुन री मैना, सुन रे तोता॥ मैं भी पंखों वाला होता॥
वन वन लेता ढूंढ तमाम। पतित पावन सीता राम॥ ४७॥
सुन रे गुलाब, चमेली जूही। चम्पा मुझे बता दे तू ही॥
सीता कहाँ पुकारे राम। पतित पावन सीताराम॥ ४८॥
हे नाग सुनो मेरे मन हारी। कहीं देखी हो जनक दुलारी॥
तेरी जैसी चोटी श्याम। पतित पावन सीताराम॥४९॥
श्यामा हिरनी तू ही बता दे। जनक-नंदिनी मुझे मिला दे॥
तेरे जैसी आँखें श्याम। पतित पावन सीताराम॥५०॥
हे अशोक मम शोक मिटा दे। चंद्रमुखी से मुझे मिला दे॥
होगा तेरा सच्चा नाम। पतित पावन सीताराम॥५१॥
वन वन ढूंढ रहे रघुराई। जनकदुलारी कहीं न पाई॥
गिद्धराज ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥५२॥
चखचख कर फल शबरी लाई। प्रेम सहित पाये रघुराई॥
ऐसे मीठे नहीं हैं आम। पतित पावन सीताराम॥५३॥
(क्रमश:)

रामायण मनका १०८ (भाग ३)..

विप्र रूप धरि हनुमत आए। चरण-कमल में शीश नवाए॥
कंधे पर बैठाये राम। पतित पावन सीताराम॥५४॥
सुग्रीव से करी मिताई। अपनी सारी कथा सुनाई॥
बाली पहुँचाया निज धाम। पतित पावन सीताराम॥५५॥
सिंहासन सुग्रीव बिठाया। मन में वह अति ही हर्षाया॥
वर्षा ऋतु आई हे राम। पतित पावन सीताराम॥५६॥
हे भाई लक्ष्मण तुम जाओ। वानरपति को यूँ समझाओ॥
सीता बिन व्याकुल हैं राम। पतित पावन सीताराम॥५७॥
देश-देश वानर भिजवाए। सागर के तट पर सब आए॥
सहते भूख, प्यास और घाम। पतित पावन सीताराम॥५८॥
सम्पाती ने पता बताया। सीता को रावण ले आया॥
सागर कूद गये हनुमान। पतित पावन सीताराम॥5९॥
कोने-कोने पता लगाया। भगत विभीषण का घर पाया॥
हनुमान ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥६०॥
हनुमत अशोक वाटिका आए। वृक्ष तले सीता को पाए॥
आँसू बरसे आठों याम। पतित पावन सीताराम॥६१॥
रावण संग निशाचरी लाके। सीता को बोला समझा के॥
मेरी और तो देखो बाम। पतित पावन सीताराम॥६२॥
मंदोदरी बना दूँ दासी। सब सेवा में लंकावासी॥
करो भवन चलकर विश्राम। पतित पावन सीताराम॥६३॥
चाहे मस्तक कटे हमारा। मैं देखूं न बदन तुम्हारा॥
मेरे तन-मन-धन हैं राम। पतित पावन सीताराम॥६४॥
ऊपर से मुद्रिका गिराई। सीता जी ने कंठ लगाई॥
हनुमान ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम॥६५॥
मुझको भेजा है रघुराया। सागर कूद यहाँ मैं आया॥
मैं हूँ राम-दास हनुमान॥ पतित पावन सीताराम॥६६॥
माता की आज्ञा मैं पाऊँ। भूख लगी मीठे फल खाऊँ॥
पीछे मैं लूँगा विश्राम। पतित पावन सीताराम॥६७॥
वृक्षों को मत हाथ लगाना। भूमि गिरे मधुर फल खाना॥
निशाचरों का है यह धाम। पतित पावन सीताराम॥६८॥
हनुमान ने वृक्ष उखाड़े। देख-देख माली ललकारे॥
मार-मार पहुंचाए धाम। पतित पावन सीताराम॥६९॥
अक्षय कुमार को स्वर्ग पहुँचाया। इन्द्रजीत फाँसी ले आया॥
ब्रह्मफांस से बंधे हनुमान। पतित पावन सीताराम॥ ७०॥
सीता को तुम लौटा दीजो। प्रभु से क्षमा याचना कीजो॥
तीन लोक के स्वामी राम। पतित पावन सीताराम॥ ७१॥
भगत विभीषन ने समझाया। रावण ने उसको धमकाया॥
सम्मुख देख रहे हनुमान। पतित पावन सीताराम॥ ७२॥
रुई, तेल, घृत, बसन मंगाई। पूँछ बाँध कर आग लगाई॥
पूँछ घुमाई है हनुमान। पतित पावन सीताराम॥ ७३॥

सब लंका में आग लगाई। सागर में जा पूँछ बुझाई॥
ह्रदय-कमल में राखे राम। पतित पावन सीताराम॥ ७४॥
सागर कूद लौटकर आए। समाचार रघुवर ने पाए।
जो माँगा सो दिया इनाम। पतित पावन सीताराम॥ ७५॥
वानर रीछ संग में लाए। लक्ष्मण सहित सिन्धु तट आए॥
लगे सुखाने सागर राम। पतित पावन सीताराम॥ ७६॥
सेतु कपि नल नील बनावें। राम राम लिख शिला तैरावें।
लंका पहुँचे राजा राम। पतित पावन सीताराम॥ ७७॥

(क्रमश:)

रामायण मनका १०८ (भाग ४)..

निशाचरों की सेना आई। गरज तरज कर हुई लड़ाई॥ वानर बोले जय siyaaraam पतित पावन सीताराम॥ ७८॥
इन्द्रजीत ने शक्ति चलाई। धरनी गिरे लखन मुरछाई।
चिंता करके रोये राम। पतित पावन सीताराम॥ ७९॥
जब मैं अवधपुरी से आया। हाय! पिता ने प्राण गंवाया॥
वन में गई चुराई वाम। पतित पावन सीताराम॥ ८०॥ भाई, तुमने भी छिटकाया। जीवन में कुछ सुख नहीं पाया॥
सेना में भारी कोहराम। पतित पावन सीताराम॥ ८१॥
जो संजीवनी बूटी को लाये। तो भी जीवित हो जाए॥
बूटी लायेगा हनुमान। पतित पावन सीताराम॥ ८२॥
जब बूटी का पता न पाया। पर्वत ही लेकर के आया॥
कालनेमि पहुँचाया धाम। पतित पावन सीताराम॥ ८३॥
भक्त भरत ने बाण चलाया। चोट लगी हनुमत लंग्दय॥
मुख से बोले जय सिया राम। पतित पावन सीताराम॥ ८४॥
बोले भरत बहुत पछता कर। पर्वत सहित बाण बिठा कर॥

तुम्हें मिला दूँ राजा राम । पतित पावन सीताराम॥ 85॥
बूटी लेकर हनुमत आया। लखन लाल उठ शीश नवाया।
हनुमत कंठ लगाये राम। पतित पावन सीता राम॥ ८६॥
कुम्भकरण उठ कर तब आया। एक बाण से उसे गिराया॥
इन्द्रजीत पहुँचाया धाम। पतित पावन सीता राम॥ ८७॥
दुर्गा पूजा रावण कीनो॥ नौ दिन तक आहार न लीनो॥
आसन बैठ किया है ध्यान। पतित पावन सीता राम॥88 ॥
रावण का व्रत खंडित किना। परम धाम पहुँचा ही दीना॥
वानर बोले जयसिया राम। पतित पावन सीता राम॥ 89 ॥

सीता ने हरि दर्शन किना। चिंता-शोक सभी ताज दीना॥
हंसकर बोले राजाराम। पतित पावन सीता राम॥ ९०॥
पहले अग्नि परीक्षा कराओ। पीछे निकट हमारे आओ॥
तुम हो पति व्रता हे बाम। पतित पावन सीता राम॥ ९१॥
करी परीक्षा कंठ लगाई। सब वानर-सेना हरषाई॥
राज विभीष्ण दीन्हा राम। पतित पावन सीता राम॥ ९२॥
फिर पुष्पक विमान मंगवाया। सीता सहित बैठ रघुराया॥
किष्किन्धा को लौटे राम। पतित पावन सीता राम॥ ९३॥
ऋषि पत्नी दर्शन को आई। दीन्ही उनको सुन्दर्तई॥
गंगा-तट पर आए राम। पतित पावन सीता राम॥ ९४॥
नंदीग्राम पवनसूत आए। भगत भरत को वचन सुनाये॥
लंका से आए हैं राम। पतित पावन सीता राम॥ ९५॥

कहो विप्र, तुम कहाँ से आए। ऐसे मीठे वचन सुनाये॥
मुझे मिला दो भैया राम। पतित पावन सीता राम॥९६॥
अवधपुरी रघुनन्दन आए। मन्दिर-मन्दिर मंगल छाये॥
माताओं को किया प्रणाम। पतित पावन सीता राम॥९७॥
भाई भरत को गले लगाया। सिंहासन बैठे रघुराया॥
जग ने कहा, हैं राजा राम। पतित पावन सीता राम॥९८॥
सब भूमि विप्रों को दीन्ही। विप्रों ने वापिस दे दीन्ही॥
हम तो भजन करेंगे राम। पतित पावन सीता राम॥९९॥
धोबी ने धोबन धमकाई। रामचंद्र ने यह सुन पाई॥
वन में सीता भेजी राम। पतित पावन सीता राम॥१००॥

बाल्मीकि आश्रम में आई। लव और कुश हुए दो भाई॥
धीर वीर ज्ञानी बलवान। पतित पावन सीता राम॥ १०१॥
अश्वमेघ यज्ञ कीन्हा राम। सीता बिनु सब सुने काम।।
लव-कुश वहां लियो पहचान। पतित पावन सीता राम॥ १०२॥
सीता राम बिना अकुलाईँ। भूमि से यह विनय सुनाईं॥
मुझको अब दीजो विश्राम। पतित पावन सीता राम॥ १०३॥
सीता भूमि माई समाई। सुनकर चिंता करी रघुराई॥
उदासीन बन गए हैं राम। पतित पावन सीता राम॥ १०४॥
राम-राज्य में सब सुख पावें। प्रेम-मग्न हो हरि गुन गावें॥
चोरी चाकरी का नहीं काम। पतित पावन सीता राम॥ १०५॥
ग्यारह हज़ार वर्षः पर्यन्त। राज किन्ही श्री लक्ष्मीकंता॥
फिर बैकुंठ पधारे राम। पतित पावन सीता राम॥ १०६॥
अवधपुरी बैकुंठ सीधी। नर-नारी सबने गति पाई॥
शरणागत प्रतिपालक राम। पतित पावन सीता राम॥ १०७॥
'हरि भक्त' ने लीला गाई। मेरी विनय सुनो रघुराई॥
भूलूँ नहीं तुम्हारा नाम। पतित पावन सीता राम॥ १०८॥
यह माला पुरी हुयी मनका एक सौ आठ॥
मनोकामना पूर्ण हो नित्य करे जो पाठ ॥

॥ हरि ॐ ॥

श्री राम स्तुति..

श्री रामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं ।
नवकंज-लोचन कंज मुख, कर कंज, पद कंजारुणं ॥
कन्दर्प अगणित अमित छबि नवनील-नीरद सुन्दरं।
पटपीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि जनक सुतावरं॥
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्यवंश-निकन्दनं।
रघुनन्द आनंद कंद कौशलचन्द दशरथ-नन्दनं॥
सिर मुकट कुण्डल तिलक चारू उदारु अंग विभूषणं।
आजानु-भुज-सर-चाप-धर, संग्राम जित-खरदूषणं॥
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम ह्रदय कंज निवास कुरू, कामादि खलदल-गंजनं॥
मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुणा निधान सुजान शील सनेह जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषी अली।
तुलसी भवानिहि पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
॥ दोहा ॥
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल वाम अंग फरकन लगे॥

गुरुवार, 28 मई 2009

चतु:श्लोकी भागवत..

ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किए जाने पर प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था। वही मूल चतु:श्लोकी भागवत है।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।
पश्चादहं यदेतच्च योSवशिष्येत सोSस्म्यहम ॥१॥
ऋतेSर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो माया यथाSSभासो यथा तम: ॥ २॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥ ३॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाSSत्मन:।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥ ४॥
सृष्टी से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टी न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टीरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टी, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं ही हूँ। (१)
जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है। (२)
जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ। (३)
आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टी) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्त्व है। (४)
इस चतु:श्लोकी भागवत के पठन एवं श्रवण से मनुष्य के अज्ञान जनित मोह और मदरूप अंधकार का नाश हो वास्तविक ज्ञानरुपी सूर्य का उदय होता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

ज्येष्ठ मास की निर्जला एकादशी..

युधिष्ठर ने कहा : जनार्दन ! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्वज्ञ और वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं।

तब वेदव्यासजी कहने लगे : दोनों ही पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन न करे। द्वादशी के दिन स्नान आदि से पवित्र हो फूलों से भगवान केशव की पूजा करे। फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात पहले ब्राहमणों को भोजन देकर अंत में स्वयं भोजन करें। राजन ! जननाशौच और मरणाशौच में भी एकादशी का भोजन नहीं करना चाहिए।
यह सुनकर भीमसेन बोले : परम बुद्धिमान पितामह ! मेरी उत्तम बात सुनिए। राजा युधिष्ठर, माता कुंती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझेसे भी हमेशा यही कहते हैं कि : 'भीमसेन ! तुम भी एकादशी को न खाया करो....' किंतु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ की मुझसे भूख नहीं सही जायेगी।
भीमसेन कि बात सुनकर व्यास जी ने कहा : यदि तुम्हे स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और नरक को दूषित समझते हो तो दोनों पक्षों कि एकादशियों के दिन भोजन न करना।
भीमसेन बोले : महाबुद्धिमान पितामह ! मैं आपके सामने सच्ची बात कहता हूँ। एक बार भोजन करके भी मुझसे व्रत नहीं किया जा सकता, फिर उपवास करके तो मैं रह ही कैसे सकता हूँ? मेरे उदर में वृक नमक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खता हूँ, तभी यह शांत होती है। इसलिए महामुने ! मैं वर्षः भर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ। जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइए। मैं उसका यथोचित रूप से पालन करूँगा।
व्यास जी ने कहा : भीम ! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करने केलिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़ कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है। एकादशी को सूर्योदय से लेकर दुसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो व्रत पूर्ण होता है। तदन्तर द्वादशी को प्रभात कल में स्नान करके ब्राहमणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे। इस प्रकार सब कार्य पुरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राहमणों के साथ भोजन करे। वर्षभर में जितनी एकादशियाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि : 'यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है।' एकादशी व्रत करनेवाले के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दंड-पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते। अन्तकाल में पिताम्बरधारी, सौम्य स्वभाववाले, हाथ में सुदर्शन धारण करनेवाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आखिर इस वैष्नव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं। अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्रीहरि का पूजन करो। स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी के प्रभाव से भस्म हो जाता है। जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है। उसे एक-एक प्रहर में कोटि-कोटि स्वर्णमुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है। मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है। यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है। निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णवपद को प्राप्त करता है। जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है। इस लोक में वह चांडाल के सामान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है।
जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं।
कुन्तीनन्दन ! 'निर्जला एकादशी' के दिन श्रद्धालु स्त्री-पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य विहित हैं, उन्हें सुनो : उस दिन जल में शयन करनेवाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घ्रृत्मयी धेनु का दान उचित है। प्रयाप्त दक्षिणा और भांति-भांति के मिष्ठानों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राहमणों को सन्तुष्ट करना चाहिए। ऐसा करने से ब्राह्मण अवश्य संतुष्त होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं। जिन्होंने शम, दम और दान में प्रवृत हो श्रीहरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस 'निर्जला एकादशी' का व्रत है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढियों को और आनेवाली सौ पीढियों को भगवान वासुदेव के परमधाम में पहुँचा दिया है। निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शय्या, सुंदर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिए। जो श्रेष्ठ तथा सुपात्र ब्राहमण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठत होता है। जो इस एकादशी की महिमा को भक्तिपूर्वक सुनता अथवा उसका वर्णन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है। चतुर्दशीयुक्त अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल इसके श्रवण से भी प्राप्त होता है। पहले दंतधावन करके यह नियम लेना चाहिए कि :'मैं भगवान केशव की प्रसन्नता केलिए एकादशी को निराहार रहकर आचमन के सिवा दूसरे जल का भी त्याग करूँगा।' द्वादशी को देवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। गंध, धुप, पुष्प और सुंदर वस्त्र से विधिपूर्वक पूजन करके जल के घडे के दान का संकल्प करते हुए निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करे :
देवदेव हृषिकेश संसारार्णवतारक।
उदकुम्भप्रदानेन नय मां परमां गतिम्॥
'संसारसागर से तारनेवाले हे देवदेव हृषिकेश ! इस जल के घडे का दान करने से आप मुझे परम गति की प्राप्ति कराइये।' (पद्म पु.हंस.खंड : ५३.६०)

भीमसेन ! ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिए। उस दिन श्रेष्ठ ब्राहमणों को शक्कर के साथ जल के घडे दान करने चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य भगवान विष्णु के समीप पहुंचकर आनन्द का अनुभव करता है। तत्पश्चात द्वादशी को ब्राह्मण-भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करे। जो इस प्रकार पूर्ण रूप से पापनाशिनी एकादशी का व्रत करता है। वह सब पापों से मुक्त हो अनामय पद को प्राप्त होता है।
यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का व्रत आरम्भ कर दिया। तबसे यह लोक में 'पांडव द्वादशी' के नाम से विख्यात हुई।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

मंगलवार, 19 मई 2009

प्रभु! परम प्रकाश की ओर ले चल..

इस संसार में सज्जनों, सत्पुरुषों और संतों को जितना सहन करना पड़ता है उतना दुष्टों को नहीं। ऐसा मालूम होता है कि इस संसार ने सत्य और सत्त्व को संघर्ष में लाने का मानो ठेका ले रखा है। यदि ऐसा न होता तो गाँधी को गोलियाँ नहीं खानी पड़ती, ईसामसीह को सूली पर न लटकना पड़ता, दयानन्द को जहर न दिया जाता और लिंकन व कैनेडी की हत्या न होती।इस संसार का कोई विचित्र रवैया है, रिवाज प्रतीत होता है कि इसका अज्ञान-अँधकार मिटाने के लिए जो अपने आपको जलाकर प्रकाश देता है, संसार की आँधियाँ उस प्रकाश को बुझाने के लिए दौड़ पड़ती हैं। टीका, टिप्पणी, निन्दा, ग़लत चर्चाएँ और अन्यायी व्यवहार की आँधी चारों ओर से उस पर टूट पड़ती है।सत्पुरुषों की स्वस्थता ऐसी विलक्षण होती है कि इन सभी बवंडरों (चक्रवातों) का प्रभाव उन पर नहीं पड़ता। जिस प्रकार सच्चे सोने को किसी भी आग की भट्ठी का डर नहीं होता उसी प्रकार संतजन भी संसार के ऐसे कुव्यवहारों से नहीं डरते। लेकिन उन संतों के प्रशंसकों, स्वजनों, मित्रों, भक्तों और सेवकों को इन अधम व्यवहारों से बहुत दुःख होता है।महापुरुष के मन में कदाचित् कोई प्रतिकार पैदा हो तो यही किः “हे दुनिया! तेरी भलाई के लिए हम यहाँ आए थे, किन्तु तू हमें पहचान न सकी। यहाँ आने का हमारा कोई दूसरा प्रयोजन नहीं था। हमने तो तेरे कल्याण के लिए ही देह धारण की और तूने हमारी ही अवहेलना की, अनादर किया? हमें तुझसे कुछ लेना नहीं था। हम तो तुझे प्रेम से अमृत देने के लिए बैठे थे। तूने उसका अनादर किया और हमारे सामने विष वमन करना शुरु किया। खैर तेरा रास्ता तुझे मुबारक और हम अपने आप में मस्त।अन्धकार, जिसका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं होता, अकारण ही प्रकाश की निन्दा करता है। मनुष्य की प्रकृति में यह अन्धकार अज्ञान और जड़ता के रूप में स्थित है। यह जब अपना जौहर दिखाता है तब हैरानी परेशानी पैदा कर देता है उसे नष्ट करना और परम दिव्यता के प्रकाश की आराधना करना इसी का नाम ही साधना है। सभी संत विभिन्न रूप में हमें इस साधना के मार्ग की ओर ले जाते हैं। घाटी का उबड़खाबड़ रास्ता छोड़कर हम परम दिव्यता के प्रकाशित पथ पर अग्रसर बनें ऐसी प्रार्थना के साथ…॥गहन अन्धकार से प्रभु!परम प्रकाश की ओर ले चल…..एक बार तथागत बुद्ध भगवान के पास आकर उनके शिष्य सुभद्र ने निवेदन कियाः “प्रभु! अब हमें यात्रा में न भेजें। अब मैं स्थानिक संघ में रहकर ही भिक्षुओं की सेवा करना चाहता हूँ।”बुद्धः “क्यों? क्या तुम्हें यात्रा में कोई कटु अनुभव हुआ?”सुभद्रः “हाँ, यात्रा में मैंने लोगों को तथागत की तथा धर्मगत की खूब निन्दा करते हुए सुना। वे ऐसी टीकाएँ करते हैं कि उसे सुना नहीं जा सकता।”बुद्धः “क्या इसीलिए तुमने यात्रा में न जाने का निर्णय लिया है?”सुभद्रः “निन्दा सुनने की अपेक्षा यहाँ बैठे रहना क्या बुरा है?”बुद्धः “निन्दा एक ऐसी ज्वाला है, जो जगत के किसी भी महापुरुष को स्पर्श किये बिना नहीं रहती तो उससे तथागत भला कैसे छूट सकते हैं?जैसे सूर्य का स्वभाव प्रकाश एवं जल का स्वभाव शीतलता है वैसे ही संत का स्वभाव करुणा और परहितपरायणता होता है। हमें अपना स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिए। शास्त्र कहते हैं कि निन्दक जिसकी निन्दा करता है उसके पापों का भी वह भागीदार बन जाता है अतैव हमें तो मात्र अपने धर्म में ही दृढ़ता रखनी चाहिए।”जिस तथागत के हृदय में सारे संसार के लिए प्रेम और करुणा का सरोवर छलकता था उनकी भी निन्दा करने में दुष्ट निन्दकों ने कुछ बाकी नहीं छोड़ा था। वस्तुतः इस विचित्र संसार ने जगत के प्रत्येक महापुरुष को तीखा-कड़वा अनुभव कराया है।

(बापू आसाराम जी के सत्संग प्रवचनों में से)

सोमवार, 18 मई 2009

ज्येष्ठ मास की अपरा एकादशी..

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? मैं उसका माहात्मय सुनना चाहता हूँ। उसे बताने की कृपा कीजिये।
भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन ! आपने सम्पूर्ण लोकों के हित के लिए बहुत उत्तम बात पूछी है। राजेंद्र ! ज्येष्ठ (गुजरात-महाराष्ट्र के अनुसार वैशाख) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम 'अपरा' है। यह बहुत पुण्य प्रदान करनेवाली और बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाली है। ब्रह्महत्या से दबा हुआ, गोत्र की हत्या करनेवाला, गर्भस्थ बालक को मारनेवाला, परनिंदक तथा परस्त्रीलम्पट पुरुषः भी 'अपरा एकादशी' के सेवन से निश्चय ही पापरहित हो जाता है। जो झूठी गवाही देता है, माप-तौल में धोखा देता है, बिना जाने ही नक्षत्रों की गणना करता है और कूटनीति से आयुर्वेद का ज्ञाता बनकर वैद्य का काम करता है.... ये सब नरक में निवास करनेवाले प्राणी हैं। परन्तु 'अपरा एकादशी' के सेवन से ये भी पाप रहित हो जाते हैं। यदि कोई क्षत्रिय अपने क्षात्रधर्म का परित्याग करके युद्ध से भागता है तो वह क्षत्रियोचित धर्म भ्रष्ट होने के करण घोर नरक में पड़ता है। जो शिष्य विद्या प्राप्त करके स्वयं ही गुरुनिंदा करता है वह भी महापातकों से युक्त होकर भयंकर नरक में गिरता है। किंतु 'अपरा एकादशी' के सेवन से ऐसे मनुष्य भी सद्गति को प्राप्त होते हैं।
माघ में जब सूर्य मकर राशि पर स्थित हो, उस समय प्रयाग में स्नान करनेवाले मनुष्यों को जो पुण्य प्राप्त होता है, काशी में शिवरात्रि का व्रत करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, गया में पिंडदान करके पितरों को तृप्ति प्रदान करनेवाला पुरूष जिस पुण्य का भागी होता है, बृहस्पति के सिंह राशि पर स्थित होने पर गोदावरी में स्नान करनेवाला मानव जिस फल को प्राप्त करता है, बद्रिकाश्रम की यात्रा के समय भगवान् केदार के दर्शन से तथा बदरीतीर्थ के सेवन से जो पुण्य-फल उपलब्ध होता है तथा सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में दक्षिणासहित यज्ञ करके हाथी, घोड़ा और सुवर्ण दान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, 'अपरा एकादशी' के सेवन से भी मनुष्य वैसे ही फल प्राप्त करता है। 'अपरा' को उपवास करके भगवान् वामन की पूजा करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो श्री विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। इसको पढ्ने और सुनने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है॥
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

सोमवार, 4 मई 2009

वैशाख मास की मोहिनी एकादशी..

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! वैशाख मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? उसका क्या फल होता है? उसके लिए कौन सी विधि है?
भगवान श्रीकृष्ण बोले : धर्मराज ! पूर्वकाल में परम बुद्धिमान श्री रामचंद्र जी ने महर्षि वशिष्ठ्जी से यही बात पूछी थी, जिसे आज तुम मुझसे पूछ रहे हो।
श्री राम ने कहा : भगवन ! जो समस्त पापों का क्षय तथा सब प्रकार के दु:खों का निवारण करनेवाला, व्रतों में उत्तम व्रत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ।
वशिष्ठ्जी बोले : श्री राम ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। मनुष्य तुम्हारा नाम लेने से पापों से शुद्ध हो जाता है। तथापि लोगों के हित की इच्छा से मैं पवित्रों-में-पवित्र उत्तम व्रत का वर्णन करूँगा। वैशाख मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका नाम 'मोहिनी' है। वह सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है। उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य मोहजाल तथा पातक-समूह से छुटकारा प् जाते हैं।
सरस्वती नदी के रमणीय तट भद्रावती नाम की सुंदर नगरी है। वहां धृतिमान नामक राजा, जो चन्द्रवंश में उत्पन और सत्यप्रतिज्ञ थे, राज्य करते थे । उसी नगर में एक वैश्य रहता था जो धनधान्य से परिपूर्ण समृद्धिशाली था, उसका नाम था धनपाल वह सदा पुन्यकर्म में ही लगा रहता था दूसरों के लिए पौसला (प्याऊ), कुआँ, मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवाया करता था। भगवान विष्णु की भक्ति में उसका हार्दिक अनुराग था। वह सदा शान्त रहता था। उसके पाँच पुत्र थे। सुमना, द्युतिमान, मेधावी, सुकृत तथा धृष्ट्बुद्धि । धृष्ट्बुद्धि पांचवा था। वह सदा बड़े-बड़े पापों में संलग्न रहता था। जुये आदि दुर्व्यसनों में उसकी बड़ी आसक्ति थी। वह वेश्याओं से मिलने के लिये लालायित रहता था। उसकी बुद्धि न तो देवताओं के पूजन में लगती थी और न ही पितरों तथा ब्राहमणों के सत्कार में।
वह दुष्टात्मा अन्याय के मार्ग पर चलकर पिता का धन बरबाद किया करता था। एक दिन वह वेश्या के गले में बाहें डाले चौराहे पर घूमता देखा गया। तब पिता ने उसे घर से निकाल दिया तथा बन्धु-बांधवों ने भी उसका परित्याग कर दिया। अब वह दिन-रात दु:ख और शोक में डूबा तथा कष्ट-पर-कष्ट उठता हुआ इधर-उधर भटकने लगा। एक दिन किसी पुण्य के उदय होने से वह महर्षि कौँन्डिन्य के आश्रम जा पहुँचा। वैशाख का महीना था। तपोधन कौँन्डिन्य गंगा जी में स्नान करके आए थे। धृष्ट्बुद्धि शोक के भार से पीड़ित हो मुनिवर कौँन्डिन्य के पास गया और हाथ जोड़ सामने खड़ा होकर बोला : 'ब्रह्मन ! द्विजश्रेष्ट ! मुझ पर दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्य के प्रभाव से मेरी मुक्ति हो।'
कौँन्डिन्य बोले : वैशाख के शुक्ल पक्ष में 'मोहिनी' नाम से प्रसिद्द एकादशी का व्रत करो। 'मोहिनी' को उपवास करने पर प्राणियों के अनेक जन्मों के किए हुए मेरु पर्वत जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं।'
वशिष्ठ जी कहते हैं : श्री रामचंद्र ! मुनि का यह वचन सुनकर धृष्ट्बुद्धि का चित्त प्रसन्न हो गया। उसने कौँन्डिन्य के उपदेश से विधिपूर्वक 'मोहिनी एकादशी' का व्रत किया। नृपश्रेष्ठ ! इस व्रत के करने से वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारण कर गरुड़ पर आरूढ़ हो सब प्रकार के उपद्रवों से रहित श्रीविष्णुधाम को चला गया। इस प्रकार यह 'मोहिनी' का व्रत बहुत उत्तम है। इसके पढने और सुनने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

वैशाख मास की "वरूथिनी एकादशी"..

युधिष्ठर ने पूछा : हे वासुदेव ! वैशाख मास के कृष्ण पक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? कृपया उसकी महिमा बताइए॥
भगवान् श्रीकृष्ण बोले : "राजन ! वैशाख (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार चैत्र) कृष्ण पक्ष की एकादशी 'वरूथिनी' नाम से प्रसिद्द है॥ यह इस लोक और परलोक में भी सौभाग्य प्रदान करनेवाली है॥ 'वरूथिनी' के व्रत से सदा सुख की प्राप्ति और पाप की हानि होती है॥ 'वरूथिनी' के व्रत से ही मान्धाता तथा धुन्धुकुमार आदि अन्य अनेक राजा स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं॥ जो फल दस हज़ार वर्षों तक तपस्या करने के बाद मनुष्य को प्राप्त होता है, वही फल इस 'वरूथिनी एकादशी' का व्रत रखने मात्र से प्राप्त होता जाता है॥ नृपश्रेष्ठ!! घोडे के दान से हाथी का दान श्रेष्ठ है॥ भूमि दान उससे भी बड़ा है॥ भूमि दान से भी अधिक महत्व तिल दान का है॥ तिल दान से बढ़ कर स्वर्ण दान और स्वर्ण दान से बढ़कर अन्नदान है, क्योंकि देवता, पितर तथा मनुष्यों को अन्न से तृप्ति होती है॥ विद्वान पुरुषों ने कन्या दान को भी इस दान के समान बताया है॥ कन्या दान के तुल्य ही गाय का दान है॥ यह साक्षात् भगवान का कथन है॥ इन सब दानों से भी बड़ा विद्या का दान है॥ मनुष्य 'वरूथिनी एकादशी' का व्रत करके विद्या दान का भी फल प्राप्त कर लेता है।। जो लोग पाप से मोहित होकर कन्या के धन से जीविका चलाते हैं, वे पुण्य का क्षय होने पर यातनामय नरक में जाते हैं॥ अत: सर्वथा प्रयन्त करके कन्या के धन से बचाना चाहिए॥ उसे अपने काम में नही लाना चाहिए॥ जो अपनी शक्ति के अनुसार कन्या को आभुषणों से विभूषित करके पवित्र भाव से कन्या का दान करता है, उसके पुण्य की संख्या बताने में चित्रगुप्त भी असमर्थ है॥ 'वरूथिनी एकादशी' करके भी मनुष्य उसी के समान फल प्राप्त करता है॥
राजन ! रात को जागरण करके जो भगवान मधुसुदन का पूजन करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो कर परम गति को प्राप्त होते हैं॥ अत: पापभिरू मनुष्यों को पूर्ण प्रयत्न करके इस एकादशी का व्रत करना चाहिए॥ यमराज से डरनेवाला मनुष्य अवश्य "वरूथिनी' व्रत करे॥ राजन! इसके पढ़ने और सुनने से सहस्त्र गौदान का फल मिलता है और मनुष्य सब पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है॥

श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

वैशाख मास माहात्म्य..

वैशाख मास सुख से साध्य, पापरूपी इंधन को अग्नि की भांति जलानेवाला, अतिशय पुण्य प्रदान करनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों पुरुषार्थ को देनेवाला है।
देवर्षि नारद राजा अम्बरिष से कहते हैं : "राजन! जो वैशाख में सूर्योदय से पहले भगवत चिंतन करते हुए पुण्य स्नान करता है, उससे भगवान विष्णु निरंतर प्रीति करते हैं। पाप तभी तक गरजते हैं जब तक जीव यह पुण्यस्नान नहीं करता॥
वैशाख मास में सब तीर्थ आदि देवता बाहर के जल (तीर्थ के अतिरिक्त) में भी सदैव स्थित रहते हैं॥ भगवान विष्णु की आज्ञा से मनुष्यों का कल्याण करने के लिए वे सूर्योदय से लेकर छ: दण्ड (२ घंटे २४ मिनट) तक वहां मौजूद रहते हैं॥ सब दानों से जो पुन्य होता है और सब तीर्थों में जो फल होता है, उसी को मनुष्य वैशाख में केवल जलदान करके पा लेता है। यह सब दानों से बढ़कर हितकारी है॥
वैशाख के शुक्ल पक्ष की तृतीया (२००९ में २७ अप्रैल) 'अक्षय तृतीया' के नाम से जानी जाती है॥ यह अक्षय फलदायिनी होती है॥ इस दिन दिये गए दान, किये गए प्रात: पुण्यस्नान, जप, तप, हवन आदि कर्मों का शुभ और अनंत फल मिलता है॥
'भविष्य पुराण' व् 'मत्स्य पुराण' के अनुसार इस तिथि को किये गए सभी कर्मों का, उपवास का फल अक्षय हो जाता है॥ इसलिए इसका नाम अक्षय पड़ा॥ त्रेता युग का प्रारम्भ इसी तिथि से हुआ है॥ इसलिए यह समस्त पाप नाशक तथा सर्व सौभाग्य प्रदायक है॥
इसमें पानी के घड़े, पंखे, ओले (चीनी के लड्डू), खडाऊ, जूते, छाता, गौ, भूमि, स्वर्णपात्र, वस्त्र आदि का दान पुण्यकारी तथा गंगास्नान अति पुण्यकारी माना गया है॥ इस दिन कृषि कार्य का प्रारम्भ शुभ और सम्रृद्धि प्रदायक है॥ इसी तिथि को ऋषि नर-नारायण, भगवान परशुराम और भगवन हयग्रीव का अवतार हुआ था॥ यह अत्यन्त पवित्र और सुख सौभाग्य प्रदान करनेवाली तिथि है॥ इस तिथि को सुख सम्रृद्धि और सफलता की कामना से व्रतोत्सव मनाने के साथ ही अस्त्र-शस्त्र, वस्त्र-आभूषण आदि बनवाए, ख़रीदे और धारण किए जाते हैं॥ नई भूमि खरीदना, भवन, संस्था आदि में प्रवेश इस तिथि को शुभ और फलदायी माना जाता है॥
ऋतुदेव जी राजा जनक से कहते हैं "राजेंद्र ! वैशाख मास के शुक्ल पक्ष में जो अन्तिम तीन पुण्यमयी तिथियाँ हैं - त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा (२००९ में ७ से ९ मई) ये बड़ी पवित्र और शुभ कारक हैं॥ इनका नाम 'पुष्करिणी' है, ये सब पापों का क्षय करनेवाली हैं॥ पूर्वकाल में वैशाख शुक्ल एकादशी को शुभ अमृत प्रकट हुआ॥ द्वादशी को भगवान विष्णु ने उसकी रक्षा की॥ त्रयोदशी को उन श्री हरि ने देवताओं को सुधा पान कराया॥ चतुर्दशी को देवविरोधी दैत्यों का संहार किया और पूर्णिमा के दिन समस्त देवताओं को उनका साम्राज्य प्राप्त हो गया॥ इसलिए देवताओं ने संतुष्ट होकर इन तीन तिथियों को वर दिया : वैशाख की ये तीन शुभ तिथियाँ मनुष्यों के पापों का नाश करनेवाली तथा उन्हें पुत्र-पौत्रादि फल देनेवाली हों॥ जो सम्पूर्ण वैशाख में प्रात: पुण्य स्नान न कर सका हो, वह इन तिथियों में उसे कर लेने पर पूर्ण फल को ही पता है॥ वैशाख में लौकिक कामनाओं को नियंत्रित करने पर मनुष्य निश्चय ही भगवान विष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लेता है॥
जो वैशाख में अन्तिम तीन दिन "भगवदगीता" का पाठ करता है, उसे प्रतिदिन अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है॥ और जो 'श्री विष्णुसहस्त्रनाम' का पाठ करता है, उसके पुण्य का वर्णन करने में भूलोक व् स्वर्ग में कौन समर्थ है॥
पूर्णिमा को सहस्त्रनाम के द्वारा भगवान मधुसूदन को दूध से नेह्लाकर मनुष्य पापहीन बैकुंठ धाम में जाता है॥ वैशाख में प्रतिदिन भागवत के आधे या चौथाई श्लोक का पाठ करनेवाला मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है॥ जो वैशाख के अन्तिम तीन दिनों में 'भागवत' शास्त्र का श्रवण करता है, वह जलसे कमल के पत्ते की भांति कभी पापों से लिप्त नहीं होता॥ उक्त दिनों के सम्यक सेवन से कितने ही मनुष्यों ने देवत्व प्राप्त कर लिया॥ कितने ही सिद्ध हो गए और कितनों ने ब्रह्मत्व पा लिया॥ इसलिए वैशाख के अन्तिम तीन दिनों में पुण्यस्नान, दान और भग्वत्पूजन आदि अवश्य करना चाहिए॥
देवर्षि नारदजी ने यह उत्तम उपाख्यान राजर्षि अम्बरीष को सुनते हुए कहा था कि यह सब पापों का नाशक तथा सम्पूर्ण सम्पतियों को देनेवाला है॥ इससे मनुष्य भक्ति, मुक्ति, ज्ञान एवं मोक्ष पाता है॥ जो इस पापनाशक एवं पुण्यवर्धक उपाख्यान को सुनता अथवा पड़ता है, वह श्रेष्ठ गति को प्राप्त होता है॥
(संत श्री आसाराम जी आश्रम द्वारा प्रकाशित मासिक पुस्तक "ऋषि प्रसाद" के मई २००९ अंक में प्रकाशित॥ ऋषि प्रसाद घर बैठे प्राप्त करने के लिए अमदावाद आश्रम में संपर्क करें, फोन न०- : 079-39877714, 079-66115714)

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

सुन्दरकाण्ड (भाग १)

प्रनवऊँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन। जासु ह्रदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥
किष्किन्धाकांड
[दोहा २९]
बलि बांधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाइ ।
उभय घरी मंह दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥
अंगद कहइ जाउं मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सब ही कर नायक॥
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुद्धि बिवेक बिग्यान निधाना॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा॥
कनक बरन तन तेज बिराजा । मानहुं अपर गिरिन्ह कर राजा ॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउं जलनिधि खारा॥
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउं इहाँ त्रिकूट उपारी॥
जामवंत मैं पूंछउं तोही । उचित सिखावनु दीजहु मोही॥
एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥
तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि संग कपि सेना॥
छंद
कपि सेन संग संघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं॥
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पवाई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥
[ दोहा ३० (क)]
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारी ॥
[सोरठा ३० (ख)]
नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥
(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग 2)

श्री गणेशाय नमः
श्री जानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरितमानस
पंचम सोपान
सुन्दरकाण्ड
श्लोक
शान्तं शाश्व्तमप्रमेयमनघं निर्वाणशांतिप्रदं
ब्रह्माशम्भू फणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देSहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम ॥ १ ॥
नान्या स्पृहा रघुपते ह्रदयSस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्ग्व निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥
जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत ह्रदय अति भाए॥
तब लगी मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥
सिन्धु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कुदि चढेउ ता ऊपर॥
बार बार रघुबीर संभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥
जेहिं गिरी चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमी अमोघ रघुपति कर बाना। एहीं भांति चलेउ हनुमाना॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
दो०-हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥ १ ॥
जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुं बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कहि तेहिं बाता॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावोँ॥
तब तव बदन पैठिहउं आई। सत्य कहउं मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना, ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठ्यऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुद्धि बल मरमु तोर मैं पावा॥
दो०-राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हर्षहि चलेउ हनुमान॥ २ ॥

निसिचरी एक सिन्धु महुं रहई। करि माया नभ के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह के परिछाहीं ॥
गहइ छाहँ सक सो न उडाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोई छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चिन्हा॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहां जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरी पर चढि लंका तेहिं देखि। कहि न जाई अति दुर्ग बिसेषी॥
अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥
(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ३)

कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउह्ट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारू पुर बहुबिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरुथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहीं बनै॥ १ ॥
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुं माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेहं भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥ २ ॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसी रच्छहीं।
कहुं महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छ्हीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागी गति पैहहिं सही॥ ३ ॥
दो०-पुर रखवारे देखि बहु मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धारों निसी नगर करोँ पइसार॥ ३ ॥

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढ्नमनी॥
पुनि सम्भारी उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंची कहा मोहि चीन्हा॥
बिकल होसि तैं कपि के मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउं नयन राम कर दूता॥
दो0- तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिली जो सुख लव सत्संग॥ ४ ॥

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिन्धु अनल सितलाई॥
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥
मन्दिर मन्दिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥

गयउ दसानन मन्दिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥
सयन किये देखा कपि तेहि। मन्दिर महुं न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मन्दिर तहँ भिन्न बनावा॥
दो०-रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नवतुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ॥ ५ ॥

लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुं तरक करैँ कपि लागा। तेहिं समय विभीषनुं जागा॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। ह्रदय हरष कपि सज्जन चीन्हा॥

एहि सन हठि करिहउं पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूंछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें ह्रदयँ प्रीति अति होई॥
की तुम्ह राम दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी॥
दो0-तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम.
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥ ६ ॥

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमी दसनंहि महुं जीभ बिचारी॥
तात कबहुं मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता॥
जौँ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषण प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
परत लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥

दो०-अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥ ७ ॥
जानतहूँ अस स्वामी बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउं जानकी माता॥
जुगुति बिभीषण सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवां॥

देखि मनहि महुं कीन्ह प्रनामा। बैठहिं बीति जात निसी जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जप्ती ह्रदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥
दो ०- निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ ८ ॥



(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ४)

तरु पल्लव महूँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौँ का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सायानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥

तव अनुचरीं करउं पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुं कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥
सठ सुनें हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥
दो०-आपुहि सुनि खद्योत सम रामहिं भानु समान।
परुष बचन सुनि काढि असि बोला अति खसिआन॥ ९ ॥
सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउं तव सिर कठिन कृपाना॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमिखी होति न त जीवन हानी॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥

सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन
चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहुबिधि त्रासहु जाई॥
मास दिवस महुं कहा न माना। तौ मैं मारिब काढि कृपाना॥
दो०-भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसचिनी बृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद॥ १० ॥

त्रिजटा नाम राच्छ्सी एका। राम चरण रति निपुण बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥
सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सर खंडित भुज बीस॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषण पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥
यह सपना मैं कहउं पुकारी। होइहि सत्य गएं दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं॥

दो०-जहन तहं गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच॥

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनी तैं मोरी॥
तजौं देह करू बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सही जाई॥
आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलहि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥

पावकमय ससि स्त्रवत न आगी। मानहुं मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करू हरु मम सोका॥

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनी जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥
सो०-कपि करी हृदयं बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरष उठि कर गहेउ॥ १२ ॥

तब देखि मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयं अकुलानी॥
जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनेँ श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कहि सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरी बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥
राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनि। दीन्हि राम तुम्ह कहं सहिदानी॥
नर बानरहि संग कहू कैसें। कहि कथा भई संगति जैसें॥

दो०-कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ १३ ॥



(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ५)

हरिजन जानि प्रीति अति गाढी। सजल नयन पुलकावलि बाढी॥
बूडत बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुं जल जाना॥
अब कहु कुसल जाऊं बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥
सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुं नयन मम सीतल ताता॥ होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥
बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥

देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥
दो०-रघुपति कर संदेस अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कही कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥ १४ ॥

कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुं सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुं कृसानू। काल निसा सम निसि ससि भानू॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौँ यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥

प्रुभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥
कह कपि हृदयं धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई॥
दो०-निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयं धीर धरु जरे निसाचर जानु॥ १५ ॥

जौँ रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई॥
राम बान रबि उएं जानकी। तम बरूथ कहं जातुधान की॥
अबहिं मातु मैं जाउं लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुं पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि सामना। जातुधान अति भट बलवाना॥
मोरें ह्रदय परम संदेहा। सुनी कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥

कनक भूधराकर सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥
दो०- सुनु माता साखामृग नहिं बल बूद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुडहि खाइ परम लघु ब्याल॥ १६ ॥

मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुं बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुं कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयऊँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रुखा॥

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौँ तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥
दो०-देखि बुद्धि बल निपुण कपि कहेउ जानकी जाहु।
रघुपति चरन हृदयं धरि तात मधुर फल खाहु॥ १७ ॥


(क्रमश : )

सुन्दरकाण्ड (भाग ६)

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैँ लगा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥
नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छ्क मर्दि मर्दि महि डारे॥
सुनि रावन पठए भट नाना॥ तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छ्कुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥
दो०-कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलिएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मरकट बल भूरि॥ १८॥
सुनि सूत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
चला इन्द्रजीत अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कट्कटाइ गरजा अरु धावा॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्देइ निज अंगा॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुं गजराजा॥
मुठिका मारि चढा तरु जाई। ताहि एक छन मुरछा आई॥
उठि बहोरि किन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥
दो०-ब्रह्म अस्त्र तेहि सांधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानऊँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९॥
ब्रह्मबान कपि कहुं तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरछित भयऊ। नागपास बांधेसि लै गयऊ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाये। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुं गरुड़ असंका॥
दो०-कपिहि बिलोकि दसानन बिहिसा कहि दुर्बाद।
सूत बध सुरति किन्हि पुनि उपजा हृदयं बिषाद॥ २०॥

कह लंकेस कवन तैं किसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखिऊँ अति असंक सठ तोही॥

मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्माण्ड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावन दाता॥

हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥
खर दूषण त्रिसरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली॥
दो०-जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारी।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥ २१॥
जानऊँ मैं तुम्हरि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥

समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहिसी बिहरावा॥
खायउं फल प्रभु लागी भूंखा। कपि सुभाव तें तोरेउं रुखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बांधेउं तनयं तुम्हारे॥
मोहि न कछु बांधे कइ लाजा। कीन्ह चहउं निज प्रभु कर कजा॥
बिनती करउं जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥
जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुं नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजे॥
दो०-प्रनतपाल रघुनायक करुना सिन्धु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥ २२॥

राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥

रिषी पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुं जनि होहु कलंका॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥
राम बिमुख सम्पति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥

सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीँ॥
सुनु दसकंठ कहउ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥

संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥
दो०-मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिन्धु भगवान॥ २३॥

जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसी महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड ज्ञानी॥
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥

उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥
नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाईं। सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर॥
दो०-कपि कें ममता पूंछपर सबहि कहउं समुझाइ।
तेल बोरि पट बांधि पुनि पावक देहु लगाइ॥ २४ ॥

पूंछ हीन बानर तहं जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै किन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउं मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैँ मूढ़ सोइ रचना॥

(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ७)

रहा न नगर बसन धृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरी पुनि पूंछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघु रूप तुरंता॥
निबुकि चढेउ कपि कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं॥
दो0-हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास॥ २५ ॥

देह बिसाल परम हरूआई। मन्दिर तें मन्दिर चढ़ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥
तात मातु हां सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहीं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीशन कर गृह नाहीं॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिन्धु मझारी॥
दो०-पूंछ बुझाई खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ भयउ कर जोरी॥ २६ ॥

मातु मोहि दीजे कछु चिन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूडामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुं नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥
कहु कपि केहि बिधि राखों प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुं सोई दिनु सो राती॥
दो०-जनकसुतहि समुझाइ करि बहुबिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥ २७ ॥

चलत महाधुनि गर्जेसी भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिन्धु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥
मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हर्षहि रघुनायक पासा। पूंछत कहत नवल इतिहासा॥
तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥
दो०-जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज॥ २८ ॥

जौँ न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एही बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूंछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेउ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेउ।।
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥
दो०-प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूंछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥ २९ ॥

जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥

ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजु। जन्म हमार सुफल भा आजू॥
नाथ पवनसुत किन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हर्षहि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भांति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
दो०-नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥ ३० ॥

चलत मोहि चूडामनि दीन्ही। रघुपति ह्रदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैँ न पाव देह बिरहागी॥

सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
दो०-निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥ ३१॥

(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ८)..

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहूँ बूझिअ बिपति कि ताही॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तब सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौँ का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥
दो०-सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हर्षहि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥ ३२॥

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिर सो दसा मगन गौरीसा॥
सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाइ प्रभु हृदयं लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥
कहू कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥
साखामृग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिन्धु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥
दो०-ता कहूँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड्वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥ ३३॥

नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥

यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैँ कर करहु बनावा॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुं आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥
दो०-कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरुथ॥ ३४ ॥
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥

देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छ्जुत मनहुं गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीँ। फरकि बाम अंग जनु कहि देहीं॥
जोई जोई सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई॥
चला कटकु को बरनैँ पारा। गर्जहिं बानर भालू अपारा॥
नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥

छं०-चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मरकट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥ १॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥२॥
दो०-एहि बिधि जय कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहं तहं लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥ ३५॥

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहं सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥

समुझत जासु दूत कइ करनी। स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
दो०-राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रस्त न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥ ३६॥

श्रवण सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाऊ नारि कर साचा। मंगल महुं भय मन अति काचा॥

जौँ अवाइ मरकट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु तीर सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माहीं॥
दो०-सचिव बैद गुर तीनि जौँ प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥ ३७॥

सोइ रावन कहुं बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषन आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउं हित ताता॥
जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥
चौदह भुवन एक पति होई। भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥

गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥
दो०-काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु जेहि संत॥ ३८॥

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर कला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनु धारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुं बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोई प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥
दो०-बार बार पद लागउं बिनय करउं दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥३९ (क)॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कही पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाई सुअवसरु तात॥(ख)॥

माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥

तात अनुज तव निति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥

माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगन अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥
दो०-तात चरन गहि मागउं राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुं अहित न होई तुम्हार ॥ ४०॥

(क्रमश:)