मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

सुन्दरकाण्ड (भाग ८)..

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहूँ बूझिअ बिपति कि ताही॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तब सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौँ का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥
दो०-सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हर्षहि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥ ३२॥

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिर सो दसा मगन गौरीसा॥
सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाइ प्रभु हृदयं लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥
कहू कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥
साखामृग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिन्धु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥
दो०-ता कहूँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड्वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥ ३३॥

नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥

यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैँ कर करहु बनावा॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुं आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥
दो०-कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरुथ॥ ३४ ॥
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥

देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छ्जुत मनहुं गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीँ। फरकि बाम अंग जनु कहि देहीं॥
जोई जोई सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई॥
चला कटकु को बरनैँ पारा। गर्जहिं बानर भालू अपारा॥
नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥

छं०-चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मरकट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥ १॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥२॥
दो०-एहि बिधि जय कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहं तहं लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥ ३५॥

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहं सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥

समुझत जासु दूत कइ करनी। स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
दो०-राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रस्त न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥ ३६॥

श्रवण सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाऊ नारि कर साचा। मंगल महुं भय मन अति काचा॥

जौँ अवाइ मरकट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु तीर सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माहीं॥
दो०-सचिव बैद गुर तीनि जौँ प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥ ३७॥

सोइ रावन कहुं बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषन आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउं हित ताता॥
जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥
चौदह भुवन एक पति होई। भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥

गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥
दो०-काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु जेहि संत॥ ३८॥

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर कला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनु धारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुं बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोई प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥
दो०-बार बार पद लागउं बिनय करउं दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥३९ (क)॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कही पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाई सुअवसरु तात॥(ख)॥

माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥

तात अनुज तव निति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥

माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगन अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥
दो०-तात चरन गहि मागउं राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुं अहित न होई तुम्हार ॥ ४०॥

(क्रमश:)

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