मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

सुन्दरकाण्ड (भाग ३)

कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउह्ट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारू पुर बहुबिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरुथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहीं बनै॥ १ ॥
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुं माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेहं भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥ २ ॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसी रच्छहीं।
कहुं महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छ्हीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागी गति पैहहिं सही॥ ३ ॥
दो०-पुर रखवारे देखि बहु मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धारों निसी नगर करोँ पइसार॥ ३ ॥

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढ्नमनी॥
पुनि सम्भारी उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंची कहा मोहि चीन्हा॥
बिकल होसि तैं कपि के मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउं नयन राम कर दूता॥
दो0- तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिली जो सुख लव सत्संग॥ ४ ॥

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिन्धु अनल सितलाई॥
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥
मन्दिर मन्दिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥

गयउ दसानन मन्दिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥
सयन किये देखा कपि तेहि। मन्दिर महुं न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मन्दिर तहँ भिन्न बनावा॥
दो०-रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नवतुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ॥ ५ ॥

लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुं तरक करैँ कपि लागा। तेहिं समय विभीषनुं जागा॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। ह्रदय हरष कपि सज्जन चीन्हा॥

एहि सन हठि करिहउं पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूंछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें ह्रदयँ प्रीति अति होई॥
की तुम्ह राम दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी॥
दो0-तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम.
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥ ६ ॥

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमी दसनंहि महुं जीभ बिचारी॥
तात कबहुं मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता॥
जौँ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषण प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
परत लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥

दो०-अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥ ७ ॥
जानतहूँ अस स्वामी बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउं जानकी माता॥
जुगुति बिभीषण सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवां॥

देखि मनहि महुं कीन्ह प्रनामा। बैठहिं बीति जात निसी जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जप्ती ह्रदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥
दो ०- निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ ८ ॥



(क्रमश:)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें