सोमवार, 6 अप्रैल 2009

गजेन्द्र द्वारा श्री नारायण स्तुति..

क्षीरसागर के मध्य में मरकतमणियों से सुशोभित 'त्रिकुट' पर्वत था। उस पर वरुण देव का 'ऋतुमान' नाम का एक सुंदर उद्यान था, जिसमें देवान्गनाएं क्रीड़ा करती रहती थीं। उद्यान में सुनहले कमलोंवाला एक सरोवर था। उसमें ग्रीष्म-संतप्त गजराज अपनी प्रियाओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। अचानक एक बलवान ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया और वह जल में उसे खींचने लगा। गजराज और उसकी प्रिया हथिनियों का रक्षा प्रयत्न जब सर्वथा विफल हो गया तो गजेन्द्र ने असहाय भावः से सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रय भगवान् की इस प्रकार स्तुति की :
'जो जगत का मूल कारण हैं और सबके ह्रदय में पुरूष के रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसार में चेतनता का विस्तार होता है, उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ। यह संसार उन्ही में स्थित है, उन्ही की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त होरहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण पकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। यह विश्व-प्रपंच उन्ही की माया से उनमें अध्यस्त है। यह कभी होता है तो कभी नहीं। परन्तु उनकी दृष्टि ज्यों-की-त्यों एक सी रहती है। वे इसके साक्षी हैं और उन दोनों को ही देखते रहते हैं। वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं। कोई दूसरा उनका कारण नहीं। वे ही समस्त कार्य और कारणों से अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें। प्रलय के समय लोक लोकपाल और इन सबके कारण सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल अत्यनत घना और गहरा अंधकार-ही-अंधकार रहता है। परन्तु अनंत परमात्मा उससे सर्वथा परे विराजमान रहते हैं। वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें। उनकी लीलाओं का रहस्य जानना बहुत ही कठिन है। वे नट की भांति अनेकों वेष धारण करते हैं। उनके वास्तविक स्वरुप को न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही, फिर दूसरा ऐसा कौन प्राणी है, जो वहां तक जा सके और उसका वर्णन कर सके? वे प्रभु मेरी रक्षा करें। जिनके परम मंगलमय स्वरुप का दर्शन करने केलिए महात्मागण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देते हैं और वन में जाकर अखंडभाव से ब्रह्मचर्य आदि आलौकिक व्रतों का पालन करते हैं तथा अपने आत्मा को सबके ह्रदय में विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते हैं। वे ही मुनियों के सर्वस्व भगवान मेरे सहायक हैं, वे ही मेरी गति हैं।
न उनके जन्म -कर्म हैं और न नाम-रूप, फिर उनके सम्बन्ध में गुण और दोष की तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है? फिर भी विश्व की सृष्टि और संहार करने के लिए समय-समय पर वे उन्हें अपनी माया से स्वीकार करते हैं। उन्हीं अनंत, शक्तिमान, सर्वेश्वर्यमय परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। वे अरूप होने पर भी बहुरूप हैं। उनके कर्म अत्यन्त आश्चर्यमय हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ।
स्वयंप्रकाश, सबके साक्षी परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मन, वाणी और चित्त से अत्यन्त दूर हैं-उन परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।
विवेकी पुरूष कर्म-सन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा अपना अंत:कर्ण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते हैं तथा जो स्वयं तो नित्यमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप हैं ही, दूसरों को कैवल्य-मुक्ति देने का सामर्थ्य भी केवल उन्ही में है उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ। जो सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों का धर्म स्वीकार करके क्रमश: शांत, घोर और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेदरहित समभाव से स्थित एवं ज्ञानघन प्रभु को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आप सबके स्वामी, समस्त क्षेत्रों के एकमात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप स्वयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार। आप समस्त इन्द्रिय और उनके विषयों के द्रष्टा हैं। समस्त प्रतीतियों के आधार हैं। अंहकार आदि छायारूप असत वस्तुओं के द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है। समस्त वस्तुओं की सत्ता के रूप में भी केवल आप ही भास रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है तथा कारण होने पर भी आपमें विकार या परिणाम नहीं होता इसलिए आप अनोखे कारण हैं। आपको मेरा बार-बार प्रणाम। जैसे समस्त नदी -झरने आदि का परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रों के परम तात्पर्य हैं। आप मोक्षस्वरूप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं, अतः आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जैसे यज्ञ के काष्ठ अरणि में अग्नि गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञान को गुणों की माया से ढक रखा है। गुणों में क्षोभ होने पर उनके द्वारा विविध प्रकार की सृष्टि-रचना का आप संकल्प करते हैं। जो लोग कर्म संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा आत्मतत्त्व की भावना करके वेद-शास्त्रों से ऊपर उठ जाते हैं, उनके आत्मा के रूप में आप स्वयं ही प्रकाशित हो जाते हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बंधन काट दे, वैसे ही आप मेरे जैसे शरणागतों की फाँसी काट देते हैं। आप नित्यमुक्त हैं, परम करुणामय हैं और भक्तों का कल्याण करने में आप कभी आलस्य नहीं करते। आपके चरणों में मेरा नमस्कार है। समस्त प्राणियों के ह्रदय में अपने अंश के द्वारा अंतरात्मा के रूप में आप उपलब्ध होते रहते हैं। आप सर्वैश्वर्यपूर्ण एवं अनन्त हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पति और स्वजनों में आसक्त हैं उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। क्योंकि आप स्वयं गुणों की आसक्ति से रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने ह्रदय में आपका निरंतर चिंतन करते रहते हैं। उन सर्वैश्वर्यपूर्ण, ज्ञानस्वरूप भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य उन्ही का भजन करके अपनी अभिष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकार का सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे ही परम दयालु प्रभु मेरा उद्दार करें। जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्हीं की शरण में रहते हुए उनसे किसी भी वस्तु यहाँ तक की मोक्ष की भी अभिलषा नहीं करते, केवल उनकी परम दिव्य मंगलमयी लीलाओं का गान करते हुए आनंद के समुन्द्र में निमग्न रहते हैं।
तमाक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तममाध्यात्मिक योगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्त्माद्यं परि पूर्णमीडे॥

जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यन्त सूक्ष्म हैं, जो अत्यन्त निकट रहने पर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं, जो अध्यात्मिकयोग अर्थात ज्ञानयोग या भक्तियोग के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ। (श्रीमद्भागवत : ८.३.२१)
जिनकी अत्यन्त छोटी कला से अनेकों नाम-रूप के भेदभाव से युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकों की सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आग से लपटें और प्रकाशमान सूर्य से उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर, जो गुणों के प्रवाहरुप हैं, बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान न देवता हैं और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक। वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे परमात्मा मेरे उद्धार के लिए प्रकट हों। मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योनि बाहर और भीतर सब और से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढकी हुई है, इसको रख कर करना ही क्या है? मैं तो आत्मप्रकाश को ढकनेवाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है। इसलिए मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ, जो विश्वरहित होने पर भी विश्व के रचयिता हैं, साथ ही जो विश्व की अंतरात्मा के रूप में विश्वरुप सामग्री से क्रीडा भी करते रहते हैं। उन अजन्मा परम पद-स्वरुप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ। योगी लोग योग के द्वारा कर्म, कर्म-वासना और कर्मफल को भस्म करके अपने योगशुद्ध ह्रदय में जिन योगेश्वर भगवान का साक्षात्कार करते हैं, उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।
प्रभो ! आपकी तीन शक्तियों सत्त्व, रज और तम के रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मन के विषयों के रूप में भी आप ही प्रतीत हो रहे हो। इसलिए जिनकी इन्द्रियां वश में नहीं हैं, वे तो आपकी प्राप्ति का मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति अनंत है। आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आपकी माया अहंबुद्धि से आत्मा का स्वरुप ढक गया है। इसीसे यह जीव अपने स्वरुप को नहीं जान पाता। आपकी महिमा अपार है। उन सर्वशक्तिमान एवं माधुर्यनिधि भगवान की मैं शरण में हूँ। (श्रीमद्भागवत : ८.३.२.-२९)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें