शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

वैशाख मास की "वरूथिनी एकादशी"..

युधिष्ठर ने पूछा : हे वासुदेव ! वैशाख मास के कृष्ण पक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? कृपया उसकी महिमा बताइए॥
भगवान् श्रीकृष्ण बोले : "राजन ! वैशाख (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार चैत्र) कृष्ण पक्ष की एकादशी 'वरूथिनी' नाम से प्रसिद्द है॥ यह इस लोक और परलोक में भी सौभाग्य प्रदान करनेवाली है॥ 'वरूथिनी' के व्रत से सदा सुख की प्राप्ति और पाप की हानि होती है॥ 'वरूथिनी' के व्रत से ही मान्धाता तथा धुन्धुकुमार आदि अन्य अनेक राजा स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं॥ जो फल दस हज़ार वर्षों तक तपस्या करने के बाद मनुष्य को प्राप्त होता है, वही फल इस 'वरूथिनी एकादशी' का व्रत रखने मात्र से प्राप्त होता जाता है॥ नृपश्रेष्ठ!! घोडे के दान से हाथी का दान श्रेष्ठ है॥ भूमि दान उससे भी बड़ा है॥ भूमि दान से भी अधिक महत्व तिल दान का है॥ तिल दान से बढ़ कर स्वर्ण दान और स्वर्ण दान से बढ़कर अन्नदान है, क्योंकि देवता, पितर तथा मनुष्यों को अन्न से तृप्ति होती है॥ विद्वान पुरुषों ने कन्या दान को भी इस दान के समान बताया है॥ कन्या दान के तुल्य ही गाय का दान है॥ यह साक्षात् भगवान का कथन है॥ इन सब दानों से भी बड़ा विद्या का दान है॥ मनुष्य 'वरूथिनी एकादशी' का व्रत करके विद्या दान का भी फल प्राप्त कर लेता है।। जो लोग पाप से मोहित होकर कन्या के धन से जीविका चलाते हैं, वे पुण्य का क्षय होने पर यातनामय नरक में जाते हैं॥ अत: सर्वथा प्रयन्त करके कन्या के धन से बचाना चाहिए॥ उसे अपने काम में नही लाना चाहिए॥ जो अपनी शक्ति के अनुसार कन्या को आभुषणों से विभूषित करके पवित्र भाव से कन्या का दान करता है, उसके पुण्य की संख्या बताने में चित्रगुप्त भी असमर्थ है॥ 'वरूथिनी एकादशी' करके भी मनुष्य उसी के समान फल प्राप्त करता है॥
राजन ! रात को जागरण करके जो भगवान मधुसुदन का पूजन करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो कर परम गति को प्राप्त होते हैं॥ अत: पापभिरू मनुष्यों को पूर्ण प्रयत्न करके इस एकादशी का व्रत करना चाहिए॥ यमराज से डरनेवाला मनुष्य अवश्य "वरूथिनी' व्रत करे॥ राजन! इसके पढ़ने और सुनने से सहस्त्र गौदान का फल मिलता है और मनुष्य सब पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है॥

श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

वैशाख मास माहात्म्य..

वैशाख मास सुख से साध्य, पापरूपी इंधन को अग्नि की भांति जलानेवाला, अतिशय पुण्य प्रदान करनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों पुरुषार्थ को देनेवाला है।
देवर्षि नारद राजा अम्बरिष से कहते हैं : "राजन! जो वैशाख में सूर्योदय से पहले भगवत चिंतन करते हुए पुण्य स्नान करता है, उससे भगवान विष्णु निरंतर प्रीति करते हैं। पाप तभी तक गरजते हैं जब तक जीव यह पुण्यस्नान नहीं करता॥
वैशाख मास में सब तीर्थ आदि देवता बाहर के जल (तीर्थ के अतिरिक्त) में भी सदैव स्थित रहते हैं॥ भगवान विष्णु की आज्ञा से मनुष्यों का कल्याण करने के लिए वे सूर्योदय से लेकर छ: दण्ड (२ घंटे २४ मिनट) तक वहां मौजूद रहते हैं॥ सब दानों से जो पुन्य होता है और सब तीर्थों में जो फल होता है, उसी को मनुष्य वैशाख में केवल जलदान करके पा लेता है। यह सब दानों से बढ़कर हितकारी है॥
वैशाख के शुक्ल पक्ष की तृतीया (२००९ में २७ अप्रैल) 'अक्षय तृतीया' के नाम से जानी जाती है॥ यह अक्षय फलदायिनी होती है॥ इस दिन दिये गए दान, किये गए प्रात: पुण्यस्नान, जप, तप, हवन आदि कर्मों का शुभ और अनंत फल मिलता है॥
'भविष्य पुराण' व् 'मत्स्य पुराण' के अनुसार इस तिथि को किये गए सभी कर्मों का, उपवास का फल अक्षय हो जाता है॥ इसलिए इसका नाम अक्षय पड़ा॥ त्रेता युग का प्रारम्भ इसी तिथि से हुआ है॥ इसलिए यह समस्त पाप नाशक तथा सर्व सौभाग्य प्रदायक है॥
इसमें पानी के घड़े, पंखे, ओले (चीनी के लड्डू), खडाऊ, जूते, छाता, गौ, भूमि, स्वर्णपात्र, वस्त्र आदि का दान पुण्यकारी तथा गंगास्नान अति पुण्यकारी माना गया है॥ इस दिन कृषि कार्य का प्रारम्भ शुभ और सम्रृद्धि प्रदायक है॥ इसी तिथि को ऋषि नर-नारायण, भगवान परशुराम और भगवन हयग्रीव का अवतार हुआ था॥ यह अत्यन्त पवित्र और सुख सौभाग्य प्रदान करनेवाली तिथि है॥ इस तिथि को सुख सम्रृद्धि और सफलता की कामना से व्रतोत्सव मनाने के साथ ही अस्त्र-शस्त्र, वस्त्र-आभूषण आदि बनवाए, ख़रीदे और धारण किए जाते हैं॥ नई भूमि खरीदना, भवन, संस्था आदि में प्रवेश इस तिथि को शुभ और फलदायी माना जाता है॥
ऋतुदेव जी राजा जनक से कहते हैं "राजेंद्र ! वैशाख मास के शुक्ल पक्ष में जो अन्तिम तीन पुण्यमयी तिथियाँ हैं - त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा (२००९ में ७ से ९ मई) ये बड़ी पवित्र और शुभ कारक हैं॥ इनका नाम 'पुष्करिणी' है, ये सब पापों का क्षय करनेवाली हैं॥ पूर्वकाल में वैशाख शुक्ल एकादशी को शुभ अमृत प्रकट हुआ॥ द्वादशी को भगवान विष्णु ने उसकी रक्षा की॥ त्रयोदशी को उन श्री हरि ने देवताओं को सुधा पान कराया॥ चतुर्दशी को देवविरोधी दैत्यों का संहार किया और पूर्णिमा के दिन समस्त देवताओं को उनका साम्राज्य प्राप्त हो गया॥ इसलिए देवताओं ने संतुष्ट होकर इन तीन तिथियों को वर दिया : वैशाख की ये तीन शुभ तिथियाँ मनुष्यों के पापों का नाश करनेवाली तथा उन्हें पुत्र-पौत्रादि फल देनेवाली हों॥ जो सम्पूर्ण वैशाख में प्रात: पुण्य स्नान न कर सका हो, वह इन तिथियों में उसे कर लेने पर पूर्ण फल को ही पता है॥ वैशाख में लौकिक कामनाओं को नियंत्रित करने पर मनुष्य निश्चय ही भगवान विष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लेता है॥
जो वैशाख में अन्तिम तीन दिन "भगवदगीता" का पाठ करता है, उसे प्रतिदिन अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है॥ और जो 'श्री विष्णुसहस्त्रनाम' का पाठ करता है, उसके पुण्य का वर्णन करने में भूलोक व् स्वर्ग में कौन समर्थ है॥
पूर्णिमा को सहस्त्रनाम के द्वारा भगवान मधुसूदन को दूध से नेह्लाकर मनुष्य पापहीन बैकुंठ धाम में जाता है॥ वैशाख में प्रतिदिन भागवत के आधे या चौथाई श्लोक का पाठ करनेवाला मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है॥ जो वैशाख के अन्तिम तीन दिनों में 'भागवत' शास्त्र का श्रवण करता है, वह जलसे कमल के पत्ते की भांति कभी पापों से लिप्त नहीं होता॥ उक्त दिनों के सम्यक सेवन से कितने ही मनुष्यों ने देवत्व प्राप्त कर लिया॥ कितने ही सिद्ध हो गए और कितनों ने ब्रह्मत्व पा लिया॥ इसलिए वैशाख के अन्तिम तीन दिनों में पुण्यस्नान, दान और भग्वत्पूजन आदि अवश्य करना चाहिए॥
देवर्षि नारदजी ने यह उत्तम उपाख्यान राजर्षि अम्बरीष को सुनते हुए कहा था कि यह सब पापों का नाशक तथा सम्पूर्ण सम्पतियों को देनेवाला है॥ इससे मनुष्य भक्ति, मुक्ति, ज्ञान एवं मोक्ष पाता है॥ जो इस पापनाशक एवं पुण्यवर्धक उपाख्यान को सुनता अथवा पड़ता है, वह श्रेष्ठ गति को प्राप्त होता है॥
(संत श्री आसाराम जी आश्रम द्वारा प्रकाशित मासिक पुस्तक "ऋषि प्रसाद" के मई २००९ अंक में प्रकाशित॥ ऋषि प्रसाद घर बैठे प्राप्त करने के लिए अमदावाद आश्रम में संपर्क करें, फोन न०- : 079-39877714, 079-66115714)

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

सुन्दरकाण्ड (भाग १)

प्रनवऊँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन। जासु ह्रदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥
किष्किन्धाकांड
[दोहा २९]
बलि बांधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाइ ।
उभय घरी मंह दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥
अंगद कहइ जाउं मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सब ही कर नायक॥
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुद्धि बिवेक बिग्यान निधाना॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा॥
कनक बरन तन तेज बिराजा । मानहुं अपर गिरिन्ह कर राजा ॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउं जलनिधि खारा॥
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउं इहाँ त्रिकूट उपारी॥
जामवंत मैं पूंछउं तोही । उचित सिखावनु दीजहु मोही॥
एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥
तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि संग कपि सेना॥
छंद
कपि सेन संग संघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं॥
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पवाई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥
[ दोहा ३० (क)]
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारी ॥
[सोरठा ३० (ख)]
नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥
(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग 2)

श्री गणेशाय नमः
श्री जानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरितमानस
पंचम सोपान
सुन्दरकाण्ड
श्लोक
शान्तं शाश्व्तमप्रमेयमनघं निर्वाणशांतिप्रदं
ब्रह्माशम्भू फणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देSहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम ॥ १ ॥
नान्या स्पृहा रघुपते ह्रदयSस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्ग्व निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥
जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत ह्रदय अति भाए॥
तब लगी मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥
सिन्धु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कुदि चढेउ ता ऊपर॥
बार बार रघुबीर संभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥
जेहिं गिरी चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमी अमोघ रघुपति कर बाना। एहीं भांति चलेउ हनुमाना॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
दो०-हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥ १ ॥
जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुं बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कहि तेहिं बाता॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावोँ॥
तब तव बदन पैठिहउं आई। सत्य कहउं मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना, ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठ्यऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुद्धि बल मरमु तोर मैं पावा॥
दो०-राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हर्षहि चलेउ हनुमान॥ २ ॥

निसिचरी एक सिन्धु महुं रहई। करि माया नभ के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह के परिछाहीं ॥
गहइ छाहँ सक सो न उडाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोई छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चिन्हा॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहां जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरी पर चढि लंका तेहिं देखि। कहि न जाई अति दुर्ग बिसेषी॥
अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥
(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ३)

कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउह्ट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारू पुर बहुबिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरुथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहीं बनै॥ १ ॥
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुं माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेहं भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥ २ ॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसी रच्छहीं।
कहुं महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छ्हीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागी गति पैहहिं सही॥ ३ ॥
दो०-पुर रखवारे देखि बहु मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धारों निसी नगर करोँ पइसार॥ ३ ॥

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढ्नमनी॥
पुनि सम्भारी उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंची कहा मोहि चीन्हा॥
बिकल होसि तैं कपि के मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउं नयन राम कर दूता॥
दो0- तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिली जो सुख लव सत्संग॥ ४ ॥

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिन्धु अनल सितलाई॥
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥
मन्दिर मन्दिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥

गयउ दसानन मन्दिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥
सयन किये देखा कपि तेहि। मन्दिर महुं न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मन्दिर तहँ भिन्न बनावा॥
दो०-रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नवतुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ॥ ५ ॥

लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुं तरक करैँ कपि लागा। तेहिं समय विभीषनुं जागा॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। ह्रदय हरष कपि सज्जन चीन्हा॥

एहि सन हठि करिहउं पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूंछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें ह्रदयँ प्रीति अति होई॥
की तुम्ह राम दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी॥
दो0-तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम.
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥ ६ ॥

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमी दसनंहि महुं जीभ बिचारी॥
तात कबहुं मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता॥
जौँ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषण प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
परत लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥

दो०-अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥ ७ ॥
जानतहूँ अस स्वामी बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउं जानकी माता॥
जुगुति बिभीषण सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवां॥

देखि मनहि महुं कीन्ह प्रनामा। बैठहिं बीति जात निसी जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जप्ती ह्रदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥
दो ०- निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ ८ ॥



(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ४)

तरु पल्लव महूँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौँ का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सायानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥

तव अनुचरीं करउं पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुं कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥
सठ सुनें हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥
दो०-आपुहि सुनि खद्योत सम रामहिं भानु समान।
परुष बचन सुनि काढि असि बोला अति खसिआन॥ ९ ॥
सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउं तव सिर कठिन कृपाना॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमिखी होति न त जीवन हानी॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥

सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन
चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहुबिधि त्रासहु जाई॥
मास दिवस महुं कहा न माना। तौ मैं मारिब काढि कृपाना॥
दो०-भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसचिनी बृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद॥ १० ॥

त्रिजटा नाम राच्छ्सी एका। राम चरण रति निपुण बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥
सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सर खंडित भुज बीस॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषण पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥
यह सपना मैं कहउं पुकारी। होइहि सत्य गएं दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं॥

दो०-जहन तहं गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच॥

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनी तैं मोरी॥
तजौं देह करू बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सही जाई॥
आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलहि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥

पावकमय ससि स्त्रवत न आगी। मानहुं मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करू हरु मम सोका॥

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनी जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥
सो०-कपि करी हृदयं बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरष उठि कर गहेउ॥ १२ ॥

तब देखि मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयं अकुलानी॥
जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनेँ श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कहि सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरी बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥
राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनि। दीन्हि राम तुम्ह कहं सहिदानी॥
नर बानरहि संग कहू कैसें। कहि कथा भई संगति जैसें॥

दो०-कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ १३ ॥



(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ५)

हरिजन जानि प्रीति अति गाढी। सजल नयन पुलकावलि बाढी॥
बूडत बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुं जल जाना॥
अब कहु कुसल जाऊं बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥
सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुं नयन मम सीतल ताता॥ होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥
बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥

देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥
दो०-रघुपति कर संदेस अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कही कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥ १४ ॥

कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुं सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुं कृसानू। काल निसा सम निसि ससि भानू॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौँ यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥

प्रुभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥
कह कपि हृदयं धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई॥
दो०-निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयं धीर धरु जरे निसाचर जानु॥ १५ ॥

जौँ रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई॥
राम बान रबि उएं जानकी। तम बरूथ कहं जातुधान की॥
अबहिं मातु मैं जाउं लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुं पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि सामना। जातुधान अति भट बलवाना॥
मोरें ह्रदय परम संदेहा। सुनी कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥

कनक भूधराकर सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥
दो०- सुनु माता साखामृग नहिं बल बूद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुडहि खाइ परम लघु ब्याल॥ १६ ॥

मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुं बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुं कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयऊँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रुखा॥

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौँ तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥
दो०-देखि बुद्धि बल निपुण कपि कहेउ जानकी जाहु।
रघुपति चरन हृदयं धरि तात मधुर फल खाहु॥ १७ ॥


(क्रमश : )

सुन्दरकाण्ड (भाग ६)

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैँ लगा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥
नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छ्क मर्दि मर्दि महि डारे॥
सुनि रावन पठए भट नाना॥ तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छ्कुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥
दो०-कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलिएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मरकट बल भूरि॥ १८॥
सुनि सूत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
चला इन्द्रजीत अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कट्कटाइ गरजा अरु धावा॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्देइ निज अंगा॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुं गजराजा॥
मुठिका मारि चढा तरु जाई। ताहि एक छन मुरछा आई॥
उठि बहोरि किन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥
दो०-ब्रह्म अस्त्र तेहि सांधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानऊँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९॥
ब्रह्मबान कपि कहुं तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरछित भयऊ। नागपास बांधेसि लै गयऊ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाये। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुं गरुड़ असंका॥
दो०-कपिहि बिलोकि दसानन बिहिसा कहि दुर्बाद।
सूत बध सुरति किन्हि पुनि उपजा हृदयं बिषाद॥ २०॥

कह लंकेस कवन तैं किसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखिऊँ अति असंक सठ तोही॥

मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्माण्ड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावन दाता॥

हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥
खर दूषण त्रिसरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली॥
दो०-जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारी।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥ २१॥
जानऊँ मैं तुम्हरि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥

समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहिसी बिहरावा॥
खायउं फल प्रभु लागी भूंखा। कपि सुभाव तें तोरेउं रुखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बांधेउं तनयं तुम्हारे॥
मोहि न कछु बांधे कइ लाजा। कीन्ह चहउं निज प्रभु कर कजा॥
बिनती करउं जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥
जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुं नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजे॥
दो०-प्रनतपाल रघुनायक करुना सिन्धु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥ २२॥

राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥

रिषी पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुं जनि होहु कलंका॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥
राम बिमुख सम्पति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥

सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीँ॥
सुनु दसकंठ कहउ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥

संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥
दो०-मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिन्धु भगवान॥ २३॥

जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसी महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड ज्ञानी॥
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥

उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥
नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाईं। सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर॥
दो०-कपि कें ममता पूंछपर सबहि कहउं समुझाइ।
तेल बोरि पट बांधि पुनि पावक देहु लगाइ॥ २४ ॥

पूंछ हीन बानर तहं जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै किन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउं मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैँ मूढ़ सोइ रचना॥

(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ७)

रहा न नगर बसन धृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरी पुनि पूंछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघु रूप तुरंता॥
निबुकि चढेउ कपि कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं॥
दो0-हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास॥ २५ ॥

देह बिसाल परम हरूआई। मन्दिर तें मन्दिर चढ़ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥
तात मातु हां सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहीं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीशन कर गृह नाहीं॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिन्धु मझारी॥
दो०-पूंछ बुझाई खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ भयउ कर जोरी॥ २६ ॥

मातु मोहि दीजे कछु चिन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूडामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुं नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥
कहु कपि केहि बिधि राखों प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुं सोई दिनु सो राती॥
दो०-जनकसुतहि समुझाइ करि बहुबिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥ २७ ॥

चलत महाधुनि गर्जेसी भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिन्धु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥
मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हर्षहि रघुनायक पासा। पूंछत कहत नवल इतिहासा॥
तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥
दो०-जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज॥ २८ ॥

जौँ न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एही बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूंछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेउ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेउ।।
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥
दो०-प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूंछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥ २९ ॥

जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥

ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजु। जन्म हमार सुफल भा आजू॥
नाथ पवनसुत किन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हर्षहि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भांति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
दो०-नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥ ३० ॥

चलत मोहि चूडामनि दीन्ही। रघुपति ह्रदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैँ न पाव देह बिरहागी॥

सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
दो०-निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥ ३१॥

(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ८)..

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहूँ बूझिअ बिपति कि ताही॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तब सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौँ का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥
दो०-सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हर्षहि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥ ३२॥

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिर सो दसा मगन गौरीसा॥
सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाइ प्रभु हृदयं लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥
कहू कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥
साखामृग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिन्धु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥
दो०-ता कहूँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड्वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥ ३३॥

नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥

यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैँ कर करहु बनावा॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुं आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥
दो०-कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरुथ॥ ३४ ॥
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥

देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छ्जुत मनहुं गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीँ। फरकि बाम अंग जनु कहि देहीं॥
जोई जोई सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई॥
चला कटकु को बरनैँ पारा। गर्जहिं बानर भालू अपारा॥
नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥

छं०-चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मरकट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥ १॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥२॥
दो०-एहि बिधि जय कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहं तहं लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥ ३५॥

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहं सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥

समुझत जासु दूत कइ करनी। स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
दो०-राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रस्त न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥ ३६॥

श्रवण सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाऊ नारि कर साचा। मंगल महुं भय मन अति काचा॥

जौँ अवाइ मरकट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु तीर सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माहीं॥
दो०-सचिव बैद गुर तीनि जौँ प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥ ३७॥

सोइ रावन कहुं बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषन आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउं हित ताता॥
जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥
चौदह भुवन एक पति होई। भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥

गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥
दो०-काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु जेहि संत॥ ३८॥

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर कला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनु धारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुं बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोई प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥
दो०-बार बार पद लागउं बिनय करउं दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥३९ (क)॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कही पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाई सुअवसरु तात॥(ख)॥

माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥

तात अनुज तव निति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥

माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगन अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥
दो०-तात चरन गहि मागउं राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुं अहित न होई तुम्हार ॥ ४०॥

(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ९)

बुध पुरान श्रुति समंत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥ सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥
उमा संत कइ इहइ बडाई। मंद करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोही मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥
दो०-रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरी॥४१॥
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं॥
देखिहउं जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषिनारि। दंडक कानन पावनकारी॥
जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखिहउं तेई॥
दो०-जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिउं इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥ ४२॥

एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा॥

कपिन्ह बिभीषन आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥
ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई॥
कह प्रभु सखा बुझिए काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया॥

भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बांधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना॥
दो०-सरनागत कहुं जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥ ४३॥
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउं नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।
जौं पै दुष्टह्र्दय सोई होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुं न कछु भय हानि कपीसा॥
जग महुं सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुं तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं। राखिहउं ताहि प्रान की नाईं॥

दो०-उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत॥
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥ ४४॥

सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता॥
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥

सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता
नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥
दो०-श्रवन सुजसु सुनि आयउं प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥ ४५॥
अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयं लगावा॥
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भय हारी॥
कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥
खल मंडली बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भांति॥
मैं जानउं तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥
दो०-तब लगि कुसल न जीव कहुं सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुं सोक धाम तजि काम॥ ४६॥


(क्रमश:)

सुंदरकांड भाग (१०)

तब लगि हृदयं बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना॥

जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥
ममता तरुन तमि अंधियारी। राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥
अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयं मोहि लावा॥
दो०-अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउं नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥ ४७॥
सुनहु सखा निज कहउं सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउं सध तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयं बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउं देह नहिं आन निहोरें॥
दो०-सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥ ४८॥

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥

राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय क्रृपाबरुथा॥
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयं समात न प्रेमु अपारा॥
सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥
अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥
दो०-रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दिन्हेउ राजु अखंड॥ ४९ (क) ॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोई संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥ ४९ (ख) ॥

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूंछ बिषना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि मन भावा॥
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घलाक॥
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भांती॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई॥
दो०-प्रभु तुम्हार कुलगुरु जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥ ५० ॥

सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिअ देव जौं होइ सहाई॥

मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा॥ सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुं एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥
सुनत बिहसी बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई॥

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए॥
दो०-सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयं सराहहि सरनागत पर नेह॥ ५१॥
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥

रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बांधि कपीस पहिं आने॥
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥
सुनी सुग्रीव बचन कापी धाए। बांधि कटक चहु पास फिराए॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना॥

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हंसि तुरत छोडाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥

दो०-कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥ ५२॥
तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लंका आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥
बिहसि दसानन पूंछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥

करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयं त्रास अति मोरी॥

दो०-की भइ कि फिरि गए श्रवण सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर॥ ५३॥

(क्रमश:)

सुन्दरकाण्ड (भाग ११)

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥ मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥
रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बांधि दीन्हे दुख नाना॥
श्रवण नासिका काटें लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥ पुँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी॥
जेहिं पुर दहेउ हटेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा।
अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥
दो०-द्विबिद मयंद नील नल अंगद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥ ५४॥

ऐ कपि सब सुग्रीव समाना। इन सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहुं ग्रसन चहत हहिं लंका॥
दो०-सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुं जीति सकहिं संग्राम॥ ५५॥

राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूंछेउ नय नागर॥
तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥
सहज भीरु कर बचन दृढाई। सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ़ मृषा का करसि बडाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥
सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रसि बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढी॥
रामानुज दीन्ही यह पाती। नाथ बचाइ जुडावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥
दो०-बातन्ह मनहि रिझाई सठ जनि घालेसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥ ५६ (क)॥
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥ ५६ (ख)॥

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि पारा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी।समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिहि। उर अपराध न एकउ धरिहि॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहां। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुं पगु धारा॥
दो०- बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीत।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीत॥ ५७॥

लछिमन बाण सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपान सन सुंदर नीती॥
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा। ऊसर बिज बएँ फल जथा॥
अस कहि रघुपति चाप चढावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥
दो०-काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥ ५८॥

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टी हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भांति रहें सुख लहई॥

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बडाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेजी जो तुमहि सोहाई॥
दो०-सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाई॥ ५९॥

नाथ नल नील कपि द्वौ भाई। लारिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरी भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउं बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बंधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥
एहिं सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥
देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनवा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥

छं०-निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना॥
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

दो०-सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जल जान॥ ६०॥


इति श्रीमद्रामचारितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचम: सोपान: समाप्त:।
(सुंदरकांड समाप्त)

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

गजेन्द्र द्वारा श्री नारायण स्तुति..

क्षीरसागर के मध्य में मरकतमणियों से सुशोभित 'त्रिकुट' पर्वत था। उस पर वरुण देव का 'ऋतुमान' नाम का एक सुंदर उद्यान था, जिसमें देवान्गनाएं क्रीड़ा करती रहती थीं। उद्यान में सुनहले कमलोंवाला एक सरोवर था। उसमें ग्रीष्म-संतप्त गजराज अपनी प्रियाओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। अचानक एक बलवान ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया और वह जल में उसे खींचने लगा। गजराज और उसकी प्रिया हथिनियों का रक्षा प्रयत्न जब सर्वथा विफल हो गया तो गजेन्द्र ने असहाय भावः से सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रय भगवान् की इस प्रकार स्तुति की :
'जो जगत का मूल कारण हैं और सबके ह्रदय में पुरूष के रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसार में चेतनता का विस्तार होता है, उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ। यह संसार उन्ही में स्थित है, उन्ही की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त होरहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण पकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। यह विश्व-प्रपंच उन्ही की माया से उनमें अध्यस्त है। यह कभी होता है तो कभी नहीं। परन्तु उनकी दृष्टि ज्यों-की-त्यों एक सी रहती है। वे इसके साक्षी हैं और उन दोनों को ही देखते रहते हैं। वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं। कोई दूसरा उनका कारण नहीं। वे ही समस्त कार्य और कारणों से अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें। प्रलय के समय लोक लोकपाल और इन सबके कारण सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल अत्यनत घना और गहरा अंधकार-ही-अंधकार रहता है। परन्तु अनंत परमात्मा उससे सर्वथा परे विराजमान रहते हैं। वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें। उनकी लीलाओं का रहस्य जानना बहुत ही कठिन है। वे नट की भांति अनेकों वेष धारण करते हैं। उनके वास्तविक स्वरुप को न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही, फिर दूसरा ऐसा कौन प्राणी है, जो वहां तक जा सके और उसका वर्णन कर सके? वे प्रभु मेरी रक्षा करें। जिनके परम मंगलमय स्वरुप का दर्शन करने केलिए महात्मागण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देते हैं और वन में जाकर अखंडभाव से ब्रह्मचर्य आदि आलौकिक व्रतों का पालन करते हैं तथा अपने आत्मा को सबके ह्रदय में विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते हैं। वे ही मुनियों के सर्वस्व भगवान मेरे सहायक हैं, वे ही मेरी गति हैं।
न उनके जन्म -कर्म हैं और न नाम-रूप, फिर उनके सम्बन्ध में गुण और दोष की तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है? फिर भी विश्व की सृष्टि और संहार करने के लिए समय-समय पर वे उन्हें अपनी माया से स्वीकार करते हैं। उन्हीं अनंत, शक्तिमान, सर्वेश्वर्यमय परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। वे अरूप होने पर भी बहुरूप हैं। उनके कर्म अत्यन्त आश्चर्यमय हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ।
स्वयंप्रकाश, सबके साक्षी परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मन, वाणी और चित्त से अत्यन्त दूर हैं-उन परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।
विवेकी पुरूष कर्म-सन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा अपना अंत:कर्ण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते हैं तथा जो स्वयं तो नित्यमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप हैं ही, दूसरों को कैवल्य-मुक्ति देने का सामर्थ्य भी केवल उन्ही में है उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ। जो सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों का धर्म स्वीकार करके क्रमश: शांत, घोर और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेदरहित समभाव से स्थित एवं ज्ञानघन प्रभु को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आप सबके स्वामी, समस्त क्षेत्रों के एकमात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप स्वयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार। आप समस्त इन्द्रिय और उनके विषयों के द्रष्टा हैं। समस्त प्रतीतियों के आधार हैं। अंहकार आदि छायारूप असत वस्तुओं के द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है। समस्त वस्तुओं की सत्ता के रूप में भी केवल आप ही भास रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है तथा कारण होने पर भी आपमें विकार या परिणाम नहीं होता इसलिए आप अनोखे कारण हैं। आपको मेरा बार-बार प्रणाम। जैसे समस्त नदी -झरने आदि का परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रों के परम तात्पर्य हैं। आप मोक्षस्वरूप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं, अतः आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जैसे यज्ञ के काष्ठ अरणि में अग्नि गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञान को गुणों की माया से ढक रखा है। गुणों में क्षोभ होने पर उनके द्वारा विविध प्रकार की सृष्टि-रचना का आप संकल्प करते हैं। जो लोग कर्म संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा आत्मतत्त्व की भावना करके वेद-शास्त्रों से ऊपर उठ जाते हैं, उनके आत्मा के रूप में आप स्वयं ही प्रकाशित हो जाते हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बंधन काट दे, वैसे ही आप मेरे जैसे शरणागतों की फाँसी काट देते हैं। आप नित्यमुक्त हैं, परम करुणामय हैं और भक्तों का कल्याण करने में आप कभी आलस्य नहीं करते। आपके चरणों में मेरा नमस्कार है। समस्त प्राणियों के ह्रदय में अपने अंश के द्वारा अंतरात्मा के रूप में आप उपलब्ध होते रहते हैं। आप सर्वैश्वर्यपूर्ण एवं अनन्त हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पति और स्वजनों में आसक्त हैं उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। क्योंकि आप स्वयं गुणों की आसक्ति से रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने ह्रदय में आपका निरंतर चिंतन करते रहते हैं। उन सर्वैश्वर्यपूर्ण, ज्ञानस्वरूप भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य उन्ही का भजन करके अपनी अभिष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकार का सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे ही परम दयालु प्रभु मेरा उद्दार करें। जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्हीं की शरण में रहते हुए उनसे किसी भी वस्तु यहाँ तक की मोक्ष की भी अभिलषा नहीं करते, केवल उनकी परम दिव्य मंगलमयी लीलाओं का गान करते हुए आनंद के समुन्द्र में निमग्न रहते हैं।
तमाक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तममाध्यात्मिक योगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्त्माद्यं परि पूर्णमीडे॥

जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यन्त सूक्ष्म हैं, जो अत्यन्त निकट रहने पर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं, जो अध्यात्मिकयोग अर्थात ज्ञानयोग या भक्तियोग के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ। (श्रीमद्भागवत : ८.३.२१)
जिनकी अत्यन्त छोटी कला से अनेकों नाम-रूप के भेदभाव से युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकों की सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आग से लपटें और प्रकाशमान सूर्य से उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर, जो गुणों के प्रवाहरुप हैं, बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान न देवता हैं और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक। वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे परमात्मा मेरे उद्धार के लिए प्रकट हों। मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योनि बाहर और भीतर सब और से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढकी हुई है, इसको रख कर करना ही क्या है? मैं तो आत्मप्रकाश को ढकनेवाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है। इसलिए मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ, जो विश्वरहित होने पर भी विश्व के रचयिता हैं, साथ ही जो विश्व की अंतरात्मा के रूप में विश्वरुप सामग्री से क्रीडा भी करते रहते हैं। उन अजन्मा परम पद-स्वरुप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ। योगी लोग योग के द्वारा कर्म, कर्म-वासना और कर्मफल को भस्म करके अपने योगशुद्ध ह्रदय में जिन योगेश्वर भगवान का साक्षात्कार करते हैं, उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।
प्रभो ! आपकी तीन शक्तियों सत्त्व, रज और तम के रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मन के विषयों के रूप में भी आप ही प्रतीत हो रहे हो। इसलिए जिनकी इन्द्रियां वश में नहीं हैं, वे तो आपकी प्राप्ति का मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति अनंत है। आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आपकी माया अहंबुद्धि से आत्मा का स्वरुप ढक गया है। इसीसे यह जीव अपने स्वरुप को नहीं जान पाता। आपकी महिमा अपार है। उन सर्वशक्तिमान एवं माधुर्यनिधि भगवान की मैं शरण में हूँ। (श्रीमद्भागवत : ८.३.२.-२९)

कामदा एकादशी (चैत्र शुक्लपक्ष)

युधिष्टर ने पूछा : वासुदेव! आपको नमस्कार है! कृपया आप यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है??
भगवान श्री कृष्ण बोले : राजन ! ध्यान लगा कर यह प्राचीन कथा सुनो, जिसे विशिष्ठजी ने राजा दिलीप के पूछने पर कहा था!
दिलीप ने पूछा : भगवन ! मैं एक बात सुनना चाहता हूँ ! चैत्र मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है?
वशिष्ठजी बोले : राजन! चैत्र शुक्लपक्ष में "कामदा" नाम की एकादशी होती है! वह परम पुण्यमयी है। पापरूपी ईंधन केलिए तो वह अग्नि ही है।
प्राचीन काल की बात है:
नागपुर नाम का एक सुंदर नगर था, जहाँ सोने के महल बने हुए थे। उस नगर में पुंडरीक आदि महा भयंकर नाग निवास करते थे।

पुंडरीक नाम का नाग उन दिनों वहां राज्य करता था। गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएं भी उस नगरी का सेवन करती थीं। वहां एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था। उसके साथ ललित नाम वाला गंधर्व भी था। वे दोनों पति-पत्नी के रूप में रहते थे। दोनों ही परस्पर काम से पीड़ित रहा करते थे। ललिता के ह्रदय में सदा पति की ही मूर्ति बसी रहा करती थी और ललित के ह्रदय में सुंदरी ललिता का ही नित्य निवास था।
एक दिन की बात है। नागराज पुंडरीक राजसभा में बैठकर मनोरंजन कर रहा था। उस समय ललित का गान हो रहा था लेकिन उसके साथ उसकी प्यारी ललिता नही थी। गाते-गाते उसे ललिता का स्मरण हो आया। अतः उसके पैरों की गति रुक गयी और जीभ लड़खडाने लगी।

नागों में श्रेष्ठ क्कोर्टक को ललित के मन का संताप पता चल गया, अतः उसने पुंडरीक को उसके पैरों की गति रुकने और गान में त्रुटी होने की बात पुंडरीक को बता दी। क्कोर्टक की बात सुनकर नागराज पुंडरीक की आँखें गुस्से से लाल हो गयीं। उसने गाते हुए कामातुर ललित को श्राप दिया :
'दुर्बुद्धे ! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नी के वशीभूत हो गया, इसलिए राक्षस हो जा।'
महाराज पुंडरीक के इतना कहते ही वह गन्धर्व राक्षस हो गया। भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखने मात्र से भय उपजाने वाला रूप ऐसा राक्षस होकर वह कर्म फल भोगने लगा।
ललिता अपने पति की विकराल आकृति देखकर मन-ही-मन बहुत चिंतित हुई। भारी दुःख से वह कष्ट पाने लगी। सोचने लगी : 'क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे पति पाप से कष्ट पा रहे हैं..'
वह रोती हुई घने जंगलों में पति के पीछे-पीछे घूमने लगी। वन में उसे एक सुंदर आश्रम दिखाई दिया, जहाँ एक मुनि शांत बैठे हुए थे, किसी भी प्राणी के साथ उनका वैर-विरोध नहीं था। ललिता शीघ्रता केसाथ वहां गयी और मुनि को प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई। मुनि बड़े दयालु थे। उस दुःखिनी को देख कर वे इस प्रकार बोले : शुभे ! तुम कौन हो? कहाँ से आई हो? मेरे सामने सच-सच बताओ।'
ललिता ने कहा : महामुने ! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं। मैं उन्ही महात्मा की पुत्री हूँ। मेरा नाम ललिता है। मेरे स्वामी अपने पाप दोष के कारण राक्षस हो गए हैं, उनकी यह अवस्था देख कर मुझे चैन नहीं है। ब्राह्मन ! इस समय मेरा जो कर्तव्य हो, वह बताइए। विप्रवर ! जिस पुण्य के द्वारा मेरे पति राक्षस भावः से छुटकारा पा जायें, उसका उपदेश कीजिये।
ऋषि बोले : भद्रे! इस समय चैत्र मास के शुक्लपक्ष की 'कामदा' नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है। तुम उसीका विधिपूर्वक व्रत करो और इस व्रत का जो पुण्य हो, उसे अपने स्वामी को दे डालो। पुण्य देने पर क्षण भर में ही उसके शाप का दोष दूर हो जाएगा।
राजन ! मुनि का यह वचन सुनकर ललिता को बड़ा हर्ष हुआ। उसने एकादशी को उपवास करके द्वादशी के दिन उन ब्रह्मर्षि के समीप ही भगवान् वासुदेव के (श्रीविग्रह के) समक्ष अपने पति के उद्धार के लिए यह वचन कहा : ' मैंने जो यह "कामदा एकादशी" का उपवास-व्रत किया है, उसके पुण्यके प्रभाव से मेरे पति का राक्षसभाव दूर हो जाये।'

वशिष्ठजी कहते हैं : ललिता के इतना कहते ही उसी क्षण ललित का पाप दूर हो गया। उसने दिव्य देह धारण कर लिया। राक्षसभाव चला गया और पुनः गंधर्वत्व की प्राप्ति हुई।
नृपश्रेष्ठ ! वे दोनों पति-पत्नी 'कामदा' के प्रभाव से पहले की अपेक्षा भी अधिक सुंदर रूप धारण करके विमान पर आरूढ़ होकर अत्यन्त शोभा पाने लगे। यह जानकर इस एकादशी के व्रत का यत्नपूर्वक पालन करना चाहिए।
मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इस व्रत का वर्णन किया है। 'कामदा एकादशी' ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषों का नाश करने वाली है। राजन! इसके पढ़ने और सुनने से वाजपये यज्ञ का फल मिलता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

रविवार, 5 अप्रैल 2009

माई बेस्ट फ्रेंड "गणेशा".. (भाग I)

सनातन धरम में हर काम की शुरुआत से पहले शिव-गौरी पुत्र गणेश जी का सुमिरन किया जाता है॥ उनके बारह नामों सुमुख, एक-दंत, कपिल, गज-कर्ण, लम्बोदर, विकट, विघ्न-नाशक, विनायक, धूम्र-केतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र, गजानन का चिंतन, उच्चारण करने के बाद यह श्लोक पढ़ा जाता है॥
द्वादशैतानि नामानि, यः पठेत् श्रुणुयाद्पि।
विद्यारम्भे विवाहे च, प्रवेशे निर्गमे तथा।
संग्रामे संकटे चैव, विघ्नस्तस्य न जायते।
यानि जो इन् बारह नामों को पढ़ता और सुनाता हैउसकी पढ़ाई-लिखाई, विवाह, गृहप्रवेश, बाहर जाने में और संकट की घड़ी में उसे निर्विघन सफलता हासिल होती है॥
मुँह से ईश्वर का कोई कोई भी नाम हम सुमिरन करें मगर मन अगर उस वक्त डिस्को या डंडिया खेलने कहीं बाहर चला जाए तो क्या भगवान के किसी भी नाम की सार्थकता रह पायेगी?? मगर मन पर कैसे ताला लगाया जाए??
तो उसका सबसे सीधा उपाय है हमें गणपति के इन बारह नामों को प्रैक्टिकली यानि व्यावहारिक दृष्टि से जानने और समझने की ज़रूरत है॥ तो चलिए थोड़ी कोशिश करते हैं "गणेशा" को अपना बेस्ट फ्रेंड बनाने की॥
1. सुमुख : यानि सुंदर मुख वाला॥ और सुंदर चेहरे की सबसे बड़ी आवशयकता है चेहरे पे मुस्कराहट और रौनक हो॥ और ये रौनक तभी आ सकती है जब हमारे मन में किसी काम को करने का उत्साह और विश्वास होगा॥ यानि अगर हम गणेश जी के सुमुख नाम का सुमिरन करें तो हमारे मन में विश्वास, उत्साह और चेहरे पर मुस्कराहट और रौनक होनी चाहिए॥ अब जब ये सब हमारे पास है तो कोई मुश्किल भला हमसे मुकाबला कर पायेगी??
2. एक दंत : एक दंत होने का मतलब सचमुच एक दांत वाला होना नही क्योंकि गणेशजी का वो एक दांत सिर्फ़ दिखाने वाला था खानेवाला नही॥ कहते हैं न हाथी के दांत खाने के और, और दिखने के और॥ तो फ़िर गणेश जी के इस नाम का ध्यान करते वक्त क्या सोचना चाहिए॥ यहाँ एक दंत का मतलब है एक बात वाला॥ जो एक बात बार कहे फ़िर अपनी बात का मान रखे॥ अपने वचन का पक्का इंसान गणेश जी के एक दंत नाम को न सिर्फ़ सार्थक करता है बल्कि उसे जी के भी दिखता है॥ ऐसे इंसान पर सभी भरोसा भी करते हैं और मुश्किल समय में उसकी सहायता भी करते हैं॥ ज़ाहिर सी बात है की ऐसे इन्सान से मिलने में मुश्किलें भी कतारएँगी॥
३. कपिल : इस नाम का अर्थ है श्वेत, उजाला यानि जिसका मन साफ़ हो॥ अब जिसका मन साफ़ है उसका व्यवहार भी सही और निष्पक्ष होगा, साफ़ मन वालों को झूठ बोलने की ज़रूरत नही पड़ती॥ ऐसे इंसान के सामने तो आधी मुश्किलें पैदा ही नही होंगी॥ यानि विघ्नों का सामना उसे ऐसे इंसान को नही करना पड़ता
. गज-कर्ण : कहते हैं हाथी सुनने के मामले में बहुत सावधान रहते हैं॥ और यही सावधानी हमें अपने स्वाभाव में भी लानी है अगर हम गणेशा के इस नाम गज-कर्ण का स्मरण करते हैं तो हमें भी सुनने के मामले में सावधान रहना होगा॥ यानि सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास कर लेने से पहले हालात और उनकी सच्चाई की परख करनी चाहिए॥ ऐसा इंसान अपने आस-पास के वातावरण के प्रति सचेत रहता है यही वजह है कि उसे सही-ग़लत लोगों की ज़्यादा परख होती है॥ अब ऐसे इंसान की ज़िन्दगी में कौन सी परेशानी टिकने का साहस दिखा सकती है??

माई बेस्ट फ्रेंड गणेशा.. (भाग २)

५. लम्बोदर : हमने कई बार सुना है की जिसका पेट बड़ा हो उसपे विश्वास करना चाहिए॥ पेट बड़ा से मतलब बड़ी मोटी तोंद नही है इसका मतलब है जिसके पेट में हर अच्छी बुरी बात पच जाए॥ जो सुने हर एक की मगर इधर की उधर न लगाये॥ ऐसे लोग अपने काम से काम रखते हैं॥ स्वाभाव में एक ठहराव और गंभीरता उनकी पहचान होती है॥ ऐसे लोगों को समाज में सम्मान भी मिलता है और सहयोग भी॥ ऐसे इंसान के आगे तो मुसीबतें भी नतमस्तक होके पीछे हठ जाती हैं॥
६.विकट : यानि रोबदार इंसान॥ दुनिया उसीको दबाती है जो ख़ुदको दीनहीन मानकर चले॥ ख़ुद पर भरोसा न करके दूसरों के आगे गिडगिडाना जिसकी आदत हो उसके जीवन में वो व्यक्ति ख़ुद ही सबसे बड़ी मुसीबत है॥ यह सही है कि किसी से बैर मत रखो मगर बेवजह किसी से डरना भी ठीक नही॥ यानि सांप की तरह डसो मत मगर अपनी फुंकार का सही जगह इस्तेमाल करना भी मत छोड़ो॥ ऐसी सही समझ बुझ के व्यक्ति मुश्किलों का सामना भी साहस और समाधान से करते हैं॥
७.विघ्न-नाशक : इस नाम का अर्थ है जो विघ्न, मुसीबतों का हल हल निकाले॥ अपने धर्य, साहस और समझ का इस्तेमाल सिर्फ़ अपने लिए ही न करे बल्कि दूसरों की भी सहायता करे॥ यह गुण उसी इंसान में हो सकते हैं जिसका व्यक्तित्व विशिष्ठ हो, अलग हो॥ ऐसे इंसान मुसीबत पड़ने पर रोना, चीखना या अपने भाग्य को कोसने में समय नही गंवाते बल्कि उस कठिन समय को परीक्षा की घड़ी मान कर उसके पार जाने का विश्वास और होसला रखते हैं॥ऐसे लोगों को विश्वास होता है की हर परीक्षा में सफल होने के बाद एक कक्षा आगे जाने का यानि उन्नति का मौका मिलता है॥ भला ऐसे लोगों के मार्ग में मुश्किलें कबतक पहरा दे सकती हैं?? क्योंकि हर परीक्षा की घड़ी के बाद उसका परिणाम निकलने का वक्त भी आता ही है न॥
८.विनायक : विनायक शब्द या उपाधि का हक़दार वही व्यक्ति होता है जिसमें समाज का, परिवार का, देश का नेतृत्व करने की क्षमता हो॥ जो निस्वार्थ होके सभी को एक साथ आगे उन्नति की ओर ले जाए॥ आजकल ऐसे इंसान कम देखने को मिलते हैं॥ नेतागिरी के नाम पे दूसरों के दोष गिनवा कर ख़ुद को बेहतर साबित करनेवाले नेता तो बहुत मिलेंगे मगर केवल अपने गुणों के द्वारा समाज को आकर्षित करने का साहस विरले ही दिखा पते हैं॥ ऐसे विशिष्ट गुणों के धनि लोगों का निर्माण कार्य वर्षों पहले रोक दिया गया था॥ जब महात्मा गाँधी, विवेकानंद, भगत सिंह, सरदार पटेल, बाल गंगाधर तिलक ओर सुभाष चंद्र बोस सरीखे लोग पुरे समाज को नदी की एक धार की तरह एक ही दिशा में बांधे सागर संगम की ओर ले जाते थे॥ ऐसे लोगों को विघ्न ओर बाधाओं की आंधियां भी नही रोक पाई॥

माई बेस्ट फ्रेंड गणेशा .. (भाग ३)

९.धूम्र-केतु : केतु यानि यश, प्रसिद्दि॥ यश और प्रसिद्दि अच्छे गुणों के कारण ही मिलती है॥ अच्छे गुणों वाले व्यक्ति से सभी प्रभावित होते हैं॥ और सभी ऐसे इंसान से ज़्यादा से ज़्यादा मेल-जोल बनाये रखना चाहते हैं॥ ज़ाहिर सी बात है कि उस इंसान की सहायता करने में भी सभी को खुशी भी मिलेगी और फायदा भी ॥ ऐसे व्यक्ति के जीवन में विघ्न्न बधायें सिर्फ़ उसके हौसलों को परखने और बुलंद करने के उद्देश्य से ही आती हैं॥
१०.गणाध्यक्षा : इसका मतलब है किसी समूह या समाज का मुखिया॥ जिसके अनुशासन और आदर्शों का सभी पालन भी करें और उन्हें स्वीकार भी करें॥ ऐसा इंसान सामाजिक शक्ति और रुतबे का भी अधिकारी होता है॥ ऐसे इंसान के पास मुसीबतें भी हाज़री लगाने से डरती हैं॥
११.भालचंद्र : चन्द्र यानि चाँद जोकि उज्वल कीर्ति और सम्मान का प्रतिक है॥ भाल चंद्र का अर्थ हुआ जिसके माथे पर चाँद हो या जिसका माथा यानि यश चाँद की तरह उजाला हो॥ ऐसा इंसान चंद्रधारी महादेव शिव की तरह परोपकार के लिए कुछ भी करने का साहस रखता है॥ और परोपकार करने वाले की सहायता तो ईश्वर भी ख़ुद अपना हाथ बढ़ा के करते हैं॥
१२.गजानन : इसका मतलब है हाथी जैसे विशाल मस्तक वाला यानि हाथी की तरह विशाल ललाट वाले की तुलना गजानन से की जाती है॥ अब जिसके पास हाथी जैसा विशाल मस्तक और चतुर दिमाग होगा वो तो बाधाओं को यूँ भी गेंद की तरह उछाल कर या रेत के घरोंदों की तरह उन् पर पाँव रख के अपनी मंजिल की तरफ़ बढ़ निकलेगा॥
इस तरह गणपति के इन् बारह नामों को अपने स्वाभाव में मिला कर हर इंसान ज़िन्दगी के उबड़-खाबड़ के रास्ते पर चलते हुए भी हंसते-मुस्कुराते अपना सफर पूरा कर सकता है॥ उसके पास समाज में प्रतिष्ठा, वैभव की कभी कमी हो ही नही सकती॥ और जहाँ गणेश जी के गुण होंगे वहां माँ लक्ष्मी का होना स्वाभाविक ही है॥
उम्मीद है कि भविष्य में हम "गणेशा" के साथ पक्की दोस्ती निभाएंगे और उनके हर नाम का sirf उच्चारण ही नही करेंगे बल्कि उसे अपने जीवन का आधार बना लेंगे॥
"आलबेस्ट"

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

आरम्भ से अंत तक--जो है बस यही है..



श्री विष्णु भगवान शेषशय्या पर.. क्यों??

कुछ दिन पहले मेरी एक मित्र ने मुझसे प्रश्न किया की भगवन विष्णु यानि श्री हरी हमेशा शेषनाग पर ही क्यों बैठे या लेटे दिखाए जाते हैं॥ मेरी वह मित्र सिख धर्म में पैदा और पली बढ़ी थी मगर उसका विवाह एक पंजाबी हिंदू के साथ हुआ॥ वैसे भी उसको शुरू से ही सनातन धर्म में काफी आस्था और विश्वास रहा है॥ उसका यह प्रश्न मुझे भी चौकाने वाला था क्योंकि मेरा कभी इस ओर ध्यान ही नही गया॥

उसके यह प्रश्न करते ही आदतन मैंने इसकी खोज शुरू की॥ काफी खोजबीन के बाद जो तथ्य मेरे सामने आए वो कुछ इस तरह से हैं॥ सबसे पहला ये कि सनातन धर्म की मान्यतानुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का भार शेषनागके सिर पर स्थित है और यह ब्रह्माण्ड श्री विष्णु भगवान में समाया हुआ है॥ इसलिए ब्रह्माण्ड के भार को शेषनाग पर टिकाये रखने केलिए ही श्री हरी शेष शैय्या पर शयन करते हैं ॥ दूसरा कारण है कि भगवान विष्णु के साथ दिखाई देने वाले शेषनाग के ज़्यादातर पाँच या सात फन होते हैं जोकि इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार, माया ओर तृष्णा के परिचायक हैं ॥ ओर शेषशैय्या पर विराज श्री विष्णु का स्वरुप हमें यही संदेश देता है की यदि हम सच्चे मन से उनका सुमिरन करें तो हमारे अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार, माया ओर तृष्णा रुपी शेषनाग के फन भी उसी तरह हमारे वश में होंगे जैसे वो श्री विष्णु के वश में हैं॥ हालाँकि ये बात बहुत छोटी है मगर इतनी सी बात समझ में आ जाए तो आत्मा को परमात्मा से मिलने से कोई अवगुणों का नाग नही रोक सकता॥