मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

सुन्दरकाण्ड (भाग ६)

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैँ लगा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥
नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छ्क मर्दि मर्दि महि डारे॥
सुनि रावन पठए भट नाना॥ तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छ्कुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥
दो०-कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलिएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मरकट बल भूरि॥ १८॥
सुनि सूत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
चला इन्द्रजीत अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कट्कटाइ गरजा अरु धावा॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्देइ निज अंगा॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुं गजराजा॥
मुठिका मारि चढा तरु जाई। ताहि एक छन मुरछा आई॥
उठि बहोरि किन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥
दो०-ब्रह्म अस्त्र तेहि सांधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानऊँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९॥
ब्रह्मबान कपि कहुं तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरछित भयऊ। नागपास बांधेसि लै गयऊ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाये। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुं गरुड़ असंका॥
दो०-कपिहि बिलोकि दसानन बिहिसा कहि दुर्बाद।
सूत बध सुरति किन्हि पुनि उपजा हृदयं बिषाद॥ २०॥

कह लंकेस कवन तैं किसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखिऊँ अति असंक सठ तोही॥

मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्माण्ड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावन दाता॥

हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥
खर दूषण त्रिसरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली॥
दो०-जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारी।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥ २१॥
जानऊँ मैं तुम्हरि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥

समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहिसी बिहरावा॥
खायउं फल प्रभु लागी भूंखा। कपि सुभाव तें तोरेउं रुखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बांधेउं तनयं तुम्हारे॥
मोहि न कछु बांधे कइ लाजा। कीन्ह चहउं निज प्रभु कर कजा॥
बिनती करउं जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥
जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुं नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजे॥
दो०-प्रनतपाल रघुनायक करुना सिन्धु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥ २२॥

राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥

रिषी पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुं जनि होहु कलंका॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥
राम बिमुख सम्पति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥

सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीँ॥
सुनु दसकंठ कहउ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥

संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥
दो०-मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिन्धु भगवान॥ २३॥

जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसी महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड ज्ञानी॥
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥

उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥
नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाईं। सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर॥
दो०-कपि कें ममता पूंछपर सबहि कहउं समुझाइ।
तेल बोरि पट बांधि पुनि पावक देहु लगाइ॥ २४ ॥

पूंछ हीन बानर तहं जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै किन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउं मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैँ मूढ़ सोइ रचना॥

(क्रमश:)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें