मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

सुन्दरकाण्ड (भाग ७)

रहा न नगर बसन धृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरी पुनि पूंछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघु रूप तुरंता॥
निबुकि चढेउ कपि कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं॥
दो0-हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास॥ २५ ॥

देह बिसाल परम हरूआई। मन्दिर तें मन्दिर चढ़ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥
तात मातु हां सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहीं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीशन कर गृह नाहीं॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिन्धु मझारी॥
दो०-पूंछ बुझाई खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ भयउ कर जोरी॥ २६ ॥

मातु मोहि दीजे कछु चिन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूडामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुं नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥
कहु कपि केहि बिधि राखों प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुं सोई दिनु सो राती॥
दो०-जनकसुतहि समुझाइ करि बहुबिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥ २७ ॥

चलत महाधुनि गर्जेसी भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिन्धु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥
मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हर्षहि रघुनायक पासा। पूंछत कहत नवल इतिहासा॥
तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥
दो०-जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज॥ २८ ॥

जौँ न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एही बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूंछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेउ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेउ।।
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥
दो०-प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूंछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥ २९ ॥

जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥

ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजु। जन्म हमार सुफल भा आजू॥
नाथ पवनसुत किन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हर्षहि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भांति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
दो०-नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥ ३० ॥

चलत मोहि चूडामनि दीन्ही। रघुपति ह्रदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैँ न पाव देह बिरहागी॥

सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
दो०-निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥ ३१॥

(क्रमश:)

1 टिप्पणी:

  1. ब्लॉग पर सुन्दर काण्ड... ! क्या बात है.. इस प्रयास के लिए तो बहुत बहुत बधाई

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