गुरुवार, 18 जून 2009

आषाढ मास की योगिनी एकादशी..

युधिष्ठर ने पूछा : वासुदेव ! आषाढ के कृष्ण पक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिये।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ ! आषाढ (गुजरात-महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम 'योगिनी' है। यह बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाली है। संसार सागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है।
अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं। उनका हेममाली नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था। हेममाली की पत्नी का नाम विशालाक्षी था। वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी आसक्त रहता था। एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका। इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे। उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की। जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : 'यक्षो ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है?'
यक्षों ने कहा : राजन ! वह तो पत्नी की कामना में असक्त हो घर में ही रमन कर रहा है।
यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गए और तुंरत ही हेममाली को बुलवाया। वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया। उसे देखकर कुबेर बोले 'ओ पापी! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी! तुने भगवान् की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यंत्र चला जा।'
कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया। कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव-पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरण शक्ति लुप्त नहीं हुई। तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरी के शिखर पर गया। वहां पर मुनिवर मार्कंडेय जी का उसे दर्शन हुआ। पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया। मुनिवर मार्कंडेय ने उसे भय से कांपते देख कहा : 'तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया?'

यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ। मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव-पूजा के समय कुबेर को दिया करता था। एक दिन पत्नी-सहवास के सुख में फँस जेने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रांत होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया। मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता है। यह जानकर मुझ अपराधी को कर्तव्य का उपदेश दीजिये।
मार्कंडेय जी ने कहा : तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्यानप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ। तुम आषाढ मास के कृष्ण पक्ष की 'योगिनी एकादशी' का व्रत करो। इस व्रत के पुन्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जाएगा।
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं : राजन ! मार्कंडेय जी के उपदेश से उसने 'योगिनी एकादशी' का व्रत किया, जिससे उसके शरीर का कोढ़ दूर हो गया। उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया।
नृपश्रेष्ठ ! यह 'योगिनी' का व्रत ऐसा पुण्यशाली है की अट्ठासी हज़ार ब्राहमणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल 'योगिनी एकादशी' का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है। 'योगिनी' महान पापों को शांत करनेवाली और महान पुण्य-फल देनेवाली है। इस महात्म्य को पढ्ने सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।
(श्री योग वेदांत सेवा समिति, संत श्री आसारामजी आश्रम की पुस्तक "एकादशी व्रत कथाएँ" से)

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