मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

सुन्दरकाण्ड (भाग 2)

श्री गणेशाय नमः
श्री जानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरितमानस
पंचम सोपान
सुन्दरकाण्ड
श्लोक
शान्तं शाश्व्तमप्रमेयमनघं निर्वाणशांतिप्रदं
ब्रह्माशम्भू फणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देSहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम ॥ १ ॥
नान्या स्पृहा रघुपते ह्रदयSस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्ग्व निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥
जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत ह्रदय अति भाए॥
तब लगी मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥
सिन्धु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कुदि चढेउ ता ऊपर॥
बार बार रघुबीर संभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥
जेहिं गिरी चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमी अमोघ रघुपति कर बाना। एहीं भांति चलेउ हनुमाना॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
दो०-हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥ १ ॥
जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुं बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कहि तेहिं बाता॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावोँ॥
तब तव बदन पैठिहउं आई। सत्य कहउं मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना, ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठ्यऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुद्धि बल मरमु तोर मैं पावा॥
दो०-राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हर्षहि चलेउ हनुमान॥ २ ॥

निसिचरी एक सिन्धु महुं रहई। करि माया नभ के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह के परिछाहीं ॥
गहइ छाहँ सक सो न उडाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोई छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चिन्हा॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहां जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरी पर चढि लंका तेहिं देखि। कहि न जाई अति दुर्ग बिसेषी॥
अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥
(क्रमश:)

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