मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

सुन्दरकाण्ड (भाग ४)

तरु पल्लव महूँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौँ का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सायानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥

तव अनुचरीं करउं पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुं कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥
सठ सुनें हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥
दो०-आपुहि सुनि खद्योत सम रामहिं भानु समान।
परुष बचन सुनि काढि असि बोला अति खसिआन॥ ९ ॥
सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउं तव सिर कठिन कृपाना॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमिखी होति न त जीवन हानी॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥

सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन
चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहुबिधि त्रासहु जाई॥
मास दिवस महुं कहा न माना। तौ मैं मारिब काढि कृपाना॥
दो०-भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसचिनी बृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद॥ १० ॥

त्रिजटा नाम राच्छ्सी एका। राम चरण रति निपुण बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥
सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सर खंडित भुज बीस॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषण पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥
यह सपना मैं कहउं पुकारी। होइहि सत्य गएं दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं॥

दो०-जहन तहं गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच॥

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनी तैं मोरी॥
तजौं देह करू बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सही जाई॥
आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलहि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥

पावकमय ससि स्त्रवत न आगी। मानहुं मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करू हरु मम सोका॥

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनी जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥
सो०-कपि करी हृदयं बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरष उठि कर गहेउ॥ १२ ॥

तब देखि मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयं अकुलानी॥
जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनेँ श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कहि सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरी बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥
राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनि। दीन्हि राम तुम्ह कहं सहिदानी॥
नर बानरहि संग कहू कैसें। कहि कथा भई संगति जैसें॥

दो०-कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ १३ ॥



(क्रमश:)

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